Saturday 10 June 2017

संस्कारो का पतन

संस्कारो का पतन

दो साल पहले, फ़िल्मी एक्ट्रेस दीपिका पादुकोण का एक वीडियो "माई च्वाइस" यु-ट्यूब पर खूब वायरल हुआ था। इसमें महिला स-सक्तिकरण के बारे में बताया गया था। इस वीडियो को देख कर लगा की दीपिका पादुकोण और इसके डायरेक्टर होमी अदजानिया को महिला ससक्तिकरण की परिभाषा नहीं आती है। इस वीडियो के एक हिस्से में यह दिखाया गया है की महिला को पूरी आजादी है कुछ भी करने की वो भी अपने शरीर के माध्यम से। महिला कहती है कि " मेरा शरीर है, मेरी मर्जी है की में शादी से पहले यौन संबंध बनाऊ या फिर न बनाऊ मेरी मर्जी है"। इसी बात को ये लोग महिला ससक्तिकरण कह रहे है। अब इन मूर्खो को कौन बताये की जिसे ये ससक्तिकरण कह रहे है वो वास्तव में संस्कारो के पतन की एक झलक है, ससक्तिकरण का अर्थ यह है की महिला उन सभी उपयो को अपनाये जिस से वो अपने पे होने वाले अत्याचारों, दोषो, और कटाक्षों का सामना कर सके। दीपिका ने इस वीडियो में काम करने के लिए हामी कैसे भर दी? इस से उनकी छवि पर आंच आ सकती है। अगर सिर्फ एक्टिंग की ही बात है तो दीपिका एडल्ट फिल्मो में भी काम कर सकती है। लेकिन वो नहीं करेंगी क्युकी उनकी छवि पर आंच आ जाएगी। ठीक उसी प्रकार इस वीडियो की भी बात है।
हाँ सभी को अपनी मर्जी से वो काम करना चाहिए जिस से सब का भला हो, हाँ वो अपनी मर्जी से खा सकते है, पी सकते है, घूम सकते है, अपने सुब्यवस्थित कपडे पहन सकते है, जब मर्जी चाहे प्लेन से या फिर ट्रेन से ट्रेवल कर सकते है। लेकिन कोई ऐसा काम अपनी मर्जी से नहीं कर सकते है जिस से मानव मूल्यों को खतरा हो, मानवता को खतरा हो।

क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर ने टीवी पर "शराब" का विज्ञापन करने से मन कर दिया था, क्युकी वो संस्कारो की वैल्यू जानते है। उनका कहना था की इस से यंगस्टर में बुरा मेसेज जाता है। और मुझे नहीं लगता की अमिताभ बच्चन किसी भी फिल्म में "बलात्कार" वाले सीन के लिए हामी भरेंगे, क्युकी उन्हें पता है की इस से उनकी बरक़रार इमेज पर आंच आ सकती है। ये है संस्कार। संस्कार का अर्थ सिर्फ ये नहीं है कि बड़े-बुजुर्गो के पाँव छूना, नमस्कार करना, बड़ो का आदर करना आदि-आदि। इनसे बढ़कर होते है संस्कार।
अगर आज का "जवान" ये सब खुली सोच रखता है तो ये सरासर उसके संस्कारो की कमी है। खुली सोच का अर्थ अधिकतम भौतिकवाद नहीं होता है, और आज का युवा अधिकतम भौतिकवाद की ही राह पर चल रहा है। और ये तभी होता है जब संस्कारो की परिपक्वता कमजोर हो। संस्कार शब्द का तात्पर्य ही दोषों के निवारण से है। निश्चित रूप से संस्कारों से अंत:करण की शुद्धि होती है। स्वामी विवेकानंद के अनुसार मानव चरित्र के निर्माण के लिए संस्कार ही आधारशिला है। यह भी परम सत्य है कि संस्कारविहीनता के कारण ही चरित्रहीनता चरम सीमा पर पहुंची है। आज प्रत्येक रिश्ता तार-तार है। सैक्स, जिस शब्द को गुप्त ही रहना चाहिए, उसे भौतिकवाद में लिप्त समाज के कुछ लोग ओपन करने की शिफारिश करते है। कुछ चीजे अंदर ही रहे तो अच्छा है। सेक्स से संबधी बातो को संस्कारी लोग अलग ही माध्यम से दुसरो को, अपने बड़े-बुजुर्गो का बताते है। क्या दीपिका पादुकोण अपने पिता के सामने यह कह सकती है, उसका "बदन" है उसकी मर्जी, जिस से चाहे, जब चाहे, सेक्स करेगी? नहीं न? ठीक यही बात है संस्कारो की , क्युकी वह पर दीपिका के संस्कार सामने आ जाते है।

एक और एक्ट्रेस कल्कि नाम की- कहती है की "मैंने 9 साल की उम्र में एक लड़के को अपने साथ सेक्स करने के लिए सहमति दी थी" ये सब कह कर वो क्या साबित करना चाहती है??? की वह इतनी ओपन है। वह कहती है की "मेरा ये बयान महिला ससक्तिकरण को बढ़ावा देगा" मेरी ये समझ में नहीं आता है की कहा से ये बयान महिला सस्कतिकरण को बढ़ावा देगा? इस मुर्ख को ये भी अंदाजा नहीं है की "ओपन" होने और ससक्तिकरण के चक्कर में वह अपने चरित्र का चीर-हरण स्वयं ही कर रही है, दुनिया को वह बता रही है की 9 साल की उम्र में ही वह चरित्रहीन हो गयी थी। दोस्तों, पति -पत्नी का रिश्ता कुछ ऐसा ही होता है पर पति या पत्नी कभी इतने "ओपन" नहीं होते है की "सेक्स एजुकेसन" के नाम पर "बीती रात" की सभी बाते खुल कर रख दे, क्युकी वहा भी एक मर्यादा है, संस्कार है और सबसे बड़ी बात एक सीमा है।

वास्तव में "ओपन" होने के नाम पर दोनों को (महिला एवं पुरुष) को इस तरह की हरकते करने का कोई हक़ नहीं है। दोनों के कृत्यों से समाज में गलत ही मेसेज जाएगा. यौन सम्बद्ध के लिए समाज ने "पत्नी" व "पति" को बनाया। अगर इसी तरह (दीपिका व होमी अदजानिये) जैसे लोग इस तरह के मेसेज देते रहेंगे तो वह दिन दूर नहीं जब मानव और फर्क नहीं रह जायेगा क्यूकी जानवर जब चाहे, जहा चाहे सेक्स कर लेता है। और आज जितने भी यौन अपराध हो रहे है वो सभी अपरिपक्व या फिर बिकुल ही शून्य संस्कारो की वजह से हो रहे है। इसी कारण लोगों का आपस में विश्वास उठ गया है। ऐसी स्थिति में समाज की दशा व दिशा स्वयं प्रकट हो रही है। मानव जन्म के पश्चात संस्कारों से ही वास्तव में मानव बनता है। यह सहजता से कहा जा सकता है कि संस्कार शारीरिक, मानसिक और अध्यात्मिक शुद्धि के प्रबल साधन हैं और संस्कारों की मुख्य विशेषता यह भी है कि ये जीवन पर्यन्त कायम रहते हैं। बेहतर यही रहेगा कि अभिभावक शिशु को प्रारंभिक अवस्था से ही अच्छे संस्कारों से सुसंस्कृत करें।

Courtesy: https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=484322858576293&id=436564770018769

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