फायदे का सौदा है प्रकृति में इन्वेस्टमेंट,
मनीष चौधरी मेरे बचपन के एक दोस्त है।उन दिनो हम पूरे दिन साथ खेलते रहते थे।प्रायः हम साथ-खाते पीते भी रहते थे।हम उनके साथ उनके गाँव भी चले जाते क्योकि वह बगल में ही था।यह दिखता था कि वह औसत दर्जे से भी नीचे के परिवार से थे,जहां बड़ी किल्लत से गुजारा होता था।उनके बाऊ जी(पिताजी) खेती-बारी मजदूरी आदि करते थे।इसको लेकर उन्हें बड़ा काम्प्लेक्स रहता।थोडी-बहुत कमाई थी उसमें वह ईमानदारी से अपने एक बेटे और एक बेटी को पढ़ाते थे।जिले के स्थानीय स्कूल में हम साथ-साथ जाते।दयनीय हालत देखकर मुझे बहुत दया आती थी। वे दिन भर खेतों में खटते थे, और पढ़े-लिखे बिल्कुल नहीं थे।
समय बीतता गया।यह मेहनती और पढ़ाई-लिखाई मे ठीक-ठाक थे।पढ़-लिख करके मुंबई में किसी कंपनी में गए।वहां उन्होंने कारोबार करना शुरू किया।चल निकला।फिर एक आईटी कंपनी डाली।आईटी कंपनी भी अच्छी-खासी चल रही थी।कुछ साल बाद किसी बड़े काम के चक्कर में मोटा लोन ले लिया।चुका नहीं पाए।पार्टनर ने लालच के चक्कर मे मोटा-घाटा करवा दिया।अचानक बर्बाद हो गए।सबकुछ बिक दिखा गया।आफिस,गाड़ी,बंगला,घोडा,प्लाट सब बिक गया।उसके बाद काम ढूंढने लगे।किंतु ऐसी मानसिक स्थिति आ गई थी,ऐसी अवसाद(डिप्रेसन) की स्थिति आ गई थी, कोई काम करने की मन:स्स्थिति ही ना बने।इस झटके ने बीमार कर दिया था।45 की उम्र के बाद एडजस्ट कर पाना थोड़ा मुश्किल होता है। जहां भी काम मिले कुछ ही दिनों में छोड़ना पड़े।
ऐसी ही स्थिति में एक दिन उनकी मुझसे भेंट हो गई।दिल्ली गया था और वहां फटेहाल, गंदे कपड़े पहने मनीष को देख कर मैं दंग रह गया।पहले मुझसे लगातार भेंट होती थी जब बहुत अच्छी स्थिति तभी मैंने देखा था।पिछले तीन-चार साल से मेरी परिस्थितिया भी कुछ ऐसी ही थी।इस वजह से भेंट नही हुई थी।छोटेपन से हमारी अच्छी-खासी दोस्ती रही है,पर जीवन की भागदौड़-आपाधापी...।मैं सहानुभूति से भर उठा।मैं उनको साथ ले आया अपने घर।काफी लंबी बातें हुई।"अब पत्नी और दो बच्चे भी है।अम्मा भी साथ रहती हैं।दिल्ली में किसी तरह गुजारा चल रहा है।बच्चो की पढ़ाई पत्नी की कमाई के सहारे चल रही है। मारा-मारा फिर रहा हूँ समझ में नही आता क्या करूँ,।मैं मदद करना चाहता था।उन्होंने बताया 2 करोड़ रुपए मिल जाएं तो काम नए सिरे से स्टार्ट हो सकता है।लेकिन दो करोड़ का लोन लेकर मै मदद करने की कोशिश करने लगा।मुझे नहीं मिल सका।मैंने पूछा घर से! उन्होंने कहा पिताजी को तो तुम जानते ही हो गांव पर रहते हैं।उनको मैं अपने साथ लाना चाहता था।लेकिन गाँव छोड़ना नही चाहते।लाख चिरौरी पर भी कभी हमारे पास रहने नही आये(मतलब मतभेद)।पढ़े-लिखे तो है नहीं। घर में इतनी कोई संपदा नहीं है।दूर-दराज देहात में सड़क से दूर 4 बीघे,सिंचित खेत हैं और उसको बेचने से भी कुछ नहीं होने वाला,।
वह चले गए और उसके तीन-चार माह तक भेंट नहीं हुई।अभी 1 दिन पिछले साल की जुलाई में हम घर में बैठे थे।सामने से आते दिख गये।मैंने देखा सब गाड़ी,बंगला,कार सब लौट आया है। बड़े मजे में हैं।मन ख़ुशी से भर उठा।
बताने लगे।हार कर मैं गाँव चला गया।गाँव के घर में मैं अवसाद में इधर-उधर बैठा रहता।बाऊजी जी बूढ़े होकर अकेले गांव में मस्त रहते।अभी भी दिन भर खेत में जमे रहते।पहले महीनावार मैं जो पैसे देता था उसमे से भी पाई भर न खरचे थे।माई बाऊ जी को सब बता चुकी थी।शाम को खेत से काम करके लौटे थे।उस मकान में हम बैठे सोचते रहते थे क्या करें।उस दिन उन्होंने पूछा की क्या बात है?मैं ने मन ही मन सोचा ये क्या कर ही सकते हैं।फिर भी जाने क्यों उस दिन मैंने बताया। "ऐसे-ऐसे हो गया है, पैसे की जरूरत है, कुछ समझ में नहीं आ रहा क्या करें!,,उन्होंने कहा 'परेशान नहीं हो। मैं इंतजाम करता हूं,। मैं अवाक! फटेहाल आदमी 2-2 रुपए के महंगे, इन्होंने जिंदगी में जो भी कमाया हो इन 4 बीघे से क्या होता है।उन्होंने कहा 'चलो खेत चलते हैं।हम गये। बचपन में 40 साल पहले जब हम स्कूल जाते थे तो पिताजी ने खेतों के किनारे सागौन और शीशम के पेड़ लगा रखे थे।उस समय के प्रचलन के हिसाब से यूके लिप्टिस के पेड़ नही लगाए।अनपढ़ गवार थे,लेकिन समय की कीमत जानते थे। उन पेड़ों को पिछले 40 साल से लगातार देखभाल करते हुए कहीं नही गये।हष्टपुष्ट इन पेड़ों को देखकर मैं दंग रह गया।कुल 300 पेड़ थे।इतने मोटे-स्वस्थ और पके पेड़ थे बाजार में कोई भी कीमत मिल सकती थी।पूरा लकड़ी मार्केट खरीदने को तैयार। वन विभाग को ले-देकर के प्रति पेड़ डेढ़ लाख रुपए की बचत हुई।हमारे पास अब चार करोड़ रुपए से भी अधिक थे। मेरी आंखों से आंसू बह रहे थे। किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि मेरे पिता ने 40 साल पहले जो इन्वेस्ट किए थे वह इतनी बड़ी रकम दे जाएंगे कल्पना से परे था।हमने दो करोड़ से काम शुरू किया।डेढ़ करोड़ की वही जमीन खरीद कर फिर से पेड़ लगा दिया। अब मैं बचा हुआ समय गांव-गांव घूम-घूम करके पेड़ लगवाने का काम करता हूं। किसानों से फलदार पेड़ लगवाने पर जोड़ देता हूं।बड़ा फायदेमंद काम है।अगर दो सौ फलदार पेड़ तैयार हो गए तो समझो 3 लाख सालाना घर बैठे देते है,,।
इंवेस्टमेंट कि यह थ्योरी जो हमने किताबों में भी नहीं पढ़ी- नही कभी सोची थी।एक अनपढ़,गरीब छोटा किसान आज के 40 साल पहले इतना समझ सकता था।अपने बाऊ जी की दूरदर्शिता पर मुझे गर्व है।इन्वेस्टमेंट के बारे में हमारी समझ वाकई कम है।हालांकि वह वही गांव में ही रुक गए, वहां से मेरे साथ आना नहीं चाहते थे।लेकिन प्राकृतिक जीवन की यह मर्यादा देखकर मेरी सोच-समझ और व्यक्तित्व ही बदल गई।अब हम ज्यादातर गाँव में ही रहने लगे है।पत्नी बच्चे भी बाऊजी के पास ज्यादा समय बिताते है।मेरा आफिस और मुख्यालय वहीं है,भले ही रजिस्टर्ड कही और से है।अब मैं आईटी कंपनी नहीं चलाता बल्कि सीड्स कंपनी चलाता हूं और मैं चाहता हूं हमारा देश हरा भरा हो।बच्चो के हरियाले भविष्य के साथ।हम पेड़ लगाते हाँ और अंदर तक शांति हासिल करते है।
(चूंकि वह नाम किसी कारणवश यहाँ जाहिर नही करना चाहते।इसलिए उन्हे मेंशन नही किया।वह इसी लिस्ट मे है)
हममे से अधिकांश लोग जीविका की खातिर शहरो मे रहने आ गए हैं।जून,जुलाई मे ही पेड़-पौधे लगाये जाते है।गाँव जाईये,यदि दो-चार बीघा जमीन है।जाहिर है आप यहाँ है तो गाँव मे बिना उपज के पड़ा होगा।कुछ धरती माता पर इन्वेस्ट करिये,उसमे पेड़ लगवाइए,सागौन,शीशम,साखू,चन्दन या खैर जैसे कीमती वृक्ष प्रकृति की रक्षा तो करेंगे ही आपके बच्चों का भविष्य भी सुरक्षित कर देंगे।यदि फलदार पेड़ो का एक भी बाग तैयार हो गया तो शांति सुकून,स्वास्थ्य के साथ-साथ धरती-प्रकृति,पानी और जीवन भी बचा ले जाएंगे।उससे मिले ऑक्सीजन,हरियाली आदि सारी कीमत जोड़ी जाए तो करोड़ो रुपए तो मुफ्त मे ही मिल जाएँगे।
नोट-पर्यावरण दिवस पर विशेष।
(कल पढ़े 'दिल्ली दिल वालो की,यह लेख प्रकृति पर है न की इतिहास पर)
साभार: पवन त्रिपाठी, https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10155276488286768&id=705621767
No comments:
Post a Comment
Note: only a member of this blog may post a comment.