#जालोर_के_पराक्रमी_चौहान_वंश
Copyright मनीषा सिंह बाईसा (क्षात्र कन्या) जगह मेवाड़ / मेड़ता, राजपुताना राजस्थान की कलम से ।
युवा जुड़ें अपने गौरवपूर्ण अतीत के साथ
मैं अपने भ्राताश्री (वो चाहे अनुज हो या बड़े हो) , बहनों से विनम्र अनुरोध करुँगी कि वे ‘इतिहास बोध’ के लिए अपने अतीत के साथ दृढ़ता से जुडऩे का संकल्प लें। क्योंकि अपने अतीत के गौरव को आप जितना ही आज में पकडक़र खड़े होंगे, आपका आगत (भविष्य) भी उतना ही गौरवमय और उज्ज्वल बनेगा। अतीत को आज के साथ दृढ़ता से पकडऩा इसलिए भी आवश्यक है कि हमने अतीत में जो जो भूलें की हैं, उन्हें पुन: न दोहरायें, उनसे शिक्षा लें, और स्वर्णिम भविष्य की ओर आगे बढ़ें।
चर्चिल ने कहा था-‘‘तुम पीछे मुडक़र जितना अपना भूतकाल देख सकते हो, उतना ही आगे-आगे आने वाले भविष्य को देख सकते हो।’’
उदय सिंह जालोर का शासक बना १२०५-१२५७ ईस्वी तक शासन किया । उदय सिंह सबसे पराक्रमी शासक सिद्ध हुआ जिसने अपने पराक्रम के बल पर जवालीपुर ( वर्त्तमान जालोर) समेत नदुला (वर्त्तमान नाडोल), माण्डवपुर (वर्त्तमान मंडोर), वाग्भट मेरु (जुना मेरु), सुरचंदा, रामसैन्या , सृमाला (वर्त्तमान भीनमाल), सत्यपुर(सांचोर) तक विस्तार किया एवं तुर्क आक्रान्ता इल्तुतमिश का भी सफलता पूर्वक प्रतिरोध किया ।
इल्तुतमिश ने दो-दो बार जालोर पर आक्रमण किया पहली बार उदयसिंह की रणनिति के कारण उसे पराजित होकर वापस लौट जाना पड़ा और दूसरी बार भी उदय सिंह द्वारा गुजरात के बाघेला शासक के साथ सयुक्त मोर्चा बना लेने के कारण इल्तुतमिश बिना यद्ध किये लौटना पड़ा था ।
उदयसिंह कुछ समय में दिल्ली सल्तनत के लिए खतरा बन गए थे, दिल्ली दरबार को उदयसिंह ने कर देने से इंकार कर दिया, जिसके कारण 1211-1216 ईस्वी चार साल युद्ध चला बिना समझौता किये चौहान राजा उदय सिंह ने दिल्ली सल्तनत के द्वारा मिल रही युद्धरूपी चुनौतियों का सामना किया ।
इस संघर्ष का वर्णन मध्यकालीन मुस्लिम इतिहास में किया गया है, जैसे हसन निजामी के 13 वीं सदी के ताज-उल-मासीर (में उल्लेखित हैं उदयसिंह जलाचे के रूप में "उदय सिंह की विजय गाथा का उल्लेख करता है) , और 16 वीं सदी के क्रम-ई-फ़िरिस्त ( फिरशाता कहता है कि दिल्ली सुल्तान इल्तुतमिश को आगे जाकर उदयसिंह ने कर भुगतान देना बंद कर दिया इसलिए जालोर पर इल्तुतमिश ने अपनी सेना भेजकर महाराजा उदय सिंह चौहान को बंदी बनाकर दिल्ली दरबार में उपस्थित करने का आदेश जारी किया इस सेना में रकन-उद-दीन हमजा, इज्ज-उद-दीन बख्तियार, नासीर-उद-दीन मर्दन शाह, नासीर-उद-दीन अली और बद्र-उद दीन सॉकरतीगिन जैसे प्रमुख सेनानायक शामिल थे जिनके साथ था लाखों से अधिक संख्या की सेना थी, इस युद्ध में उदय सिंह चौहान ने अपनी सेना के साथ युद्ध मोर्चा संभाला एवं तुर्क के विशाल सेना को परास्त कर रणभूमि में जीवित बचे तुर्क सेनापति नासीर-उद-दीन मर्दन शाह, बद्र-उद दीन समेत ६५,००० तुर्क सैनिको को बंदी बना कर जालोर नगरी में जुलुस निकाला एवं दिल्ली दरबार में सन्देश भेजा गया की अगला आक्रमण तुर्कों से दिल्ली को मुक्त करवाने के लिए किया जायेगा सुल्तान भयभीत होगया राजपूतों से मिली हार के बाद सुल्तान ने संधि करना उचित समझा एवं हर्जाने के स्वरुप में 100 ऊंटों और 20 घोड़ों उदयसिंह को भेंट किया ।
ईस्वी.सन. 1221 में, इल्तुतमिश ने फिर से आज के राजस्थान और गुजरात के राजपूत शासकों के खिलाफ युद्ध घोषणा कर दिया । उदयसिंह ने राजपूत शासकों को एक छत्र में लाये एवं संयुक्त मोर्चा बनाकर गुजरात एवं राजस्थान की सीमा पर घेरा डाल दिया, जिससे दिल्ली के सुल्तान बिना युद्ध किये पीछे हट गया ।
गुजरात क्रानिकल हमीरा-मदा-मर्दन के अनुसार, इल्तुतमिश ने उदयसिंह के खिलाफ एक और अभियान चलाया था 12 वीं शताब्दी के मुस्लिम इतिहासकार मिन्हाज-ए-सिराज के अनुसार , इल्तुतमिश ने 1227 ईस्वी में मण्डोर किला पर आक्रमण कर उसे अपने कब्जे में करना चाहा परन्तु उदयसिंह के हाथो परास्त होकर तुर्क लौटना पड़ा एवं इस बार भी ४५,८०० तुर्की सैनिको को उदयसिंह ने बंदी बनाया । सुंधा पर्वत शिलालेख के अनुसार, माण्डवपुर (वर्त्तमान मंडोर) पर आक्रमण करना इल्तुतमिश की सबसे बड़ी भूल थी जिसमे इल्तुतमिश को भारी क्षति उठानी पड़ी आज भी मंदोर का किला उदयसिंह की विजय गाथा गाती है ।
उदय सिंह की शौर्यपूर्ण विजय गाथा कई हिन्दू ग्रन्थ एवं प्रसस्ती में उल्लेखित हैं उदयसिंह चौहान ने दो दो बार इल्तुतमिश को पराजित किया एवं दिल्ली को तुर्कों के आधीन से आजाद रखा एवं भविष्य में आगे चलकर तुर्क आक्रमणकारियों द्वारा किये गए युद्ध अभियान को सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया । सुंधा पर्वत शिलालेख ने उदय सिंह को तुरुस्क्मोचन (तुर्क नमक संकट को हर लिया था सम्राट उदय सिंह चौहान ने) की उपाधि प्रदान किये हैं ।
17 वीं शताब्दी के इतिहासकार मुहन्नोत नैनसी ने कहा कि "सुल्तान जलाल-उद-दीन ने 1241 ईसवी में जालोर पर हमला किया, लेकिन उदय सिंह चौहान से हार कर पीछे हटने के लिए मजबूर हो गया। सुल्तान जलाल-उद-दीन द्वारा किये गए इस हमले का नेतृत्व मलिक अंबर नामक एक जनरल ने किया था ९६,००० सैन्यबल के साथ जालोर पर आक्रमण किया उदयसिंह चौहान ने अपने सेनापति राजपुत्र बप्पा के साथ रणभूमि में सुल्तान जलाल-उद-दीन की सेना को मार भगाया एवं तुर्क सेनापति मलिक अंबर युद्ध मारा गया उदयसिंह के हाथो अस्सुर मलेच्छों का संहार हुआ एवं जालोर की धरती मानो ऐसा प्रतीत होरहा था मलेच्छों के रक्त से रक्तअभिषेक हुआ हो।
पुरातन-प्रवासी-संग्राह खाते में उल्लेख है कि 1253 ईस्वी में, दोबारा जलाल-उद-दीन खुद सेना लेकर जालौर पर आक्रमण किया पराजित होकर शांति संधि के लिए बातचीत करने के लिए दूत को भेजा जलाल-उद-दीन ने उदयसिंह को 3,600,000 मुद्रा हर्जाने के स्वरुप में भेंट किया।
उदय सिंह तुर्कों पर विजय पाने के बाद जावलीपुरा में दो शिव मंदिरों की स्थापना की ।
अत: इतिहास का वास्तविक और तथ्यात्मक अध्ययन हर किसी के लिए आवश्यक है। इसे पूर्णत: गंभीर विषय समझना चाहिए और अपने जीवनमरण और अस्तित्व से जोडक़र इसे देखना चाहिए। मुझसे कई लोग कहते हैं कि इतिहास तो केवल समय नष्ट करने और सिरदर्द उत्पन्न करने वाला विषय है। इसलिए इस पर अधिक ध्यान लगाना मूर्खता है।
पर यह उनकी अपनी सोच हो सकती है, आप इस सोच को अपने ऊपर प्रभावी ना होने दें। क्योंकि उनकी ऐसी सोच उनकी हीन ग्रंथि का अज्ञानता का, आत्मप्रवंचना का, अपने ही विषय में नीरसता का और तुच्छ मानसिकता का हमें सहज दर्शन करा देती है। क्योंकि ऐसी सोच के कारण ही हमसे ईरान, अफगानिस्तान, बर्मा, मालद्वीप, इण्डोनेशिया, जावा, सुमात्रा, इत्यादि कटते चले गये। हमने कभी ये नही सोचा कि हमसे भूल कहां हुई और ना ही ये सोचा कि इतने बड़े विशाल भू-भाग पर अंतत: हमारा शासन किन नीतियों के और मर्यादाओं के कारण चिरस्थायी रह पाया था? यदि दोनों बातों पर चिंतन होता, तो आज इतिहास को ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय माना जाता ।
जय एकलिंगजी ।।
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