Monday 13 February 2017

मेवाड़ की रानी पद्मिनी

#रानी_पद्मिनी की शौर्य गाथा

मेवाड़ की रानी पद्मिनी

वीरों की धरती राजस्थान!!!

जहाँ के इतिहास में अपनी आन-बान  के लिए बलिदान होने वालों की अनेक गाथाएँ वर्णित हैं ।

एक कवि ने राजस्थान के वीरों के लिए कहा है :

"पूत जण्या जामण इस्या मरण जठे असकेल
सूँघा सिर, मूंघा करया पण सतियाँ नारेल"

{वहाँ ऐसे पुत्रों को माताओं ने जन्म दिया था जिनका उद्देश्य अपनी भूमि  के लिए म़र जाना खेल जैसा था । जहाँ की सतियों अर्थात वीर बालाओं ने सिरों को सस्ता और नारियलों को महँगा कर दिया था (यह रानी पद्मिनी के जौहर की तरफ संकेत करता है) ।

१३०२ ईस्वी  में मेवाड़ के राजसिंहासन पर रावल रतन सिंह बैठे थे ।

उनकी रानियों में एक थी #पद्मिनी जो श्री लंका के राजवंश की राजकुँवरी थी । रानी पद्मिनी का अनुपम सौन्दर्य यायावर गायकों (चारण/भाट/कवियों) के गीतों का विषय बन गया था ।

दिल्ली के तात्कालिक सुल्तान अल्ला-उ-द्दीन खिलज़ी ने पद्मिनी के अप्रतिम सौन्दर्य का वर्णन सुना और वह उस सुंदरी को अपने हरम में शामिल करने के लिए उतावला हो गया ।

वर्ष-१३०३

यह घटना कोई कल्पना नहीं और बहुत पुरानी भी नहीं । मात्र ७१४ साल पहले की बात है ।

अलाउद्दीन खिलजी जिसका असली नाम #अली_गुर्शप था, दिल्ली की सत्ता हथियाने के लिए उसने अपने चाचा (जलाल-उद-दिन फ़िरोज़), जो उसकी पत्नी के पिता भी थे, की  हत्या कर दी थी ।
सन १२९६ में दिल्ली के सिंहासन पर बैठने के बाद वह चित्तोड़गढ़ को जीतना चाहता था, रानी पद्मिनी के सौन्दर्य के बारे में उसने बहुत सुना था, उसकी बुरी नज़र रानी पद्मिनी पर थी और उन्हें अपने हरम में शामिल करना चाहता था ।

अवधि भाषा में लिखे मोहम्मद जायसी के काव्य ग्रन्थ #पद्मावत में इसका वर्णन भी है । सन १३०३ में उसने चितौड़गढ़ पर चढ़ाई कर दी ।

चितौड़गढ़ के महाराणा रतन सिंह को जब यह सूचना मिली तब उन्होंने समस्त मेवाड़ और आसपास के क्षेत्रों में खिलजी से मुकाबला करने की तैयारी की । 6 महीने तक यह युद्ध चला ।

अब खिलजी ने चालाकी का काम लिया और संधि का प्रस्ताव महाराणा के पास भेजा कि मैं मित्रता का इच्छुक हूँ और एक मित्र के नाते दुर्ग में आना चाहता हूँ बिना किसी को साथ लिए । मैं केवल रानी पद्मावती के दर्शन करके वापस चला जाऊँगा ।

महाराणा ने मंत्रियों के साथ सलाह मशवरा किया और खिलजी की बात मान ली ।

महाराणा रतन सिंह ने महल तक खिलजी की अगवानी की । महल के उपरी मंजिल पर स्थित एक कक्ष की  पिछली दीवार पर एक दर्पण लगाया गया, जिसके ठीक सामने एक दूसरे कक्ष की खिड़की खुल रही थी । उस खिड़की के पीछे झील में स्थित एक मंडप रूपी महल था जिसका बिम्ब खिडकियों से होकर उस दर्पण में पड़ रहा था । अल्लाउद्दीन को कहा गया कि दर्पण में झांके । हक्केबक्के सुलतान ने आईने की ओर अपनी नज़र की और उसमें रानी का प्रतिभिंब उसे दिख गया । तकनीकी तौर पर उसे रानी साहिबा को दिखा दिया गया था ।

सुल्तान को एहसास हो गया कि उसके साथ चालबाजी की गयी है, किन्तु बोल भी नहीं पा रहा था । मेवाड़ नरेश ने रानी के दर्शन कराने का अपना वादा जो पूरा किया था और उस पर वह नितान्त अकेला और निरस्त्र भी था ।

परिस्थितियां असमान्य थी, किन्तु एक राजपूत मेजबान की गरिमा को अपनाते हुए, दुश्मन अल्लाउद्दीन को ससम्मान वापस पहुँचाने मुख्य द्वार तक स्वयं रावल रतन सिंह जी गये थे । अल्लाउद्दीन ने तो पहले से ही धोखे की योजना बना रखी थी । उसके सिपाही दरवाज़े के बाहर छिपे हुए थे । दरवाज़ा खुला ओर रावल साहब को जकड लिया गया और उन्हें पकड़ कर शत्रु सेना के खेमे में कैद कर दिया गया ।

राजपूत सैनिकों के अथक प्रयत्नों के बाद भी वे महाराणा को छुडाने में असफल रहे । अलाउद्दीन खिलजी ने रानी पद्मावती को सन्देश भिजवाया कि अगर वह उनसे मिलने आएँगी तो वह महाराणा को छोड़ देगा ।

रानी बहुत बहादुर थी, उसने इस शर्त पर वहाँ आने की बात स्वीकार की कि वह सबसे पहले महाराणा से मिलना चाहती है और उसके साथ उसकी सात सौ दासियों का काफिला भी आएगा । रानी के इस प्रस्ताव को खिलजी ने मान लिया । खिलज़ी ने सोचा था कि ज्योंही पद्मिनी उसकी गिरफ्त में आ जाएगी, रावल रतन सिंह का वध कर दिया जायेगा और चित्तौड़ पर हमला कर उस पर कब्ज़ा कर लिया जायेगा ।

उधर पद्मिनी ने भी एक योजना बनाई । अपनी पालकी में अपने स्थान पर विश्वसनीय काका गोरा को बिठा दिया और दासियों की पालकी में सैनिकों को । पालकियों को उठाने वाले कहार भी राजपूत योद्धा थे । गोरा और १२ वर्षीय बादल भी इन में सम्मिलित थे ।

पालकियाँ बिना रोकटोक महाराणा रतन सिंह के तम्बू में पहुँची, जहाँ उन्हें बंदी बनाया हुआ था । इसी बीच राणा को घोड़े पर बिठा कर चुपचाप किले की और भेज दिया गया ।

कहार के भेष में योद्धा और पालकियों में सवार योद्धा खिलजी की सेना पर टूट पड़े ।

अचानक हुए हमले से उस सेना में भगदड़ मच गयी ।
मैदान इंसानी लाल खून से सुर्ख हो गया था। शहीदों में गोरा और बादल भी थे, जिन्होंने मेवाड़ के भगवा ध्वज की रक्षा के लिए अपनी आहुति दे दी थी । 6 महीने से चल रहे युद्ध के कारण किले में भोजन की कमी हो गयी थी ।

इस कारण सेना की हिम्मत भी टूट रही थी । अब एक ही चारा बचा था, "करो या मरो" या "घुटने टेको" । #आत्मसमर्पण या शत्रु के सामने घुटने टेक देना बहादुर राजपूतों के गौरव लिए अभिशाप तुल्य था, ऐसे में बस एक ही विकल्प बचा था झूझना । युद्ध करना । शत्रु का यथासंभव संहार करते हुए वीरगति को पाना ।

इसलिए जौहर और शाका करने का फैसला लिया गया ।

गोमुख के उत्तर में स्थित मैदान में एक विशाल चिता का निर्माण किया ।

अब रानी पद्मावती के नेतृत्व में सोलह हज़ार राजपूत स्त्रियों ने गोमुख में स्नान करके अपने कुल देवी देवताओं और निकट सम्बन्धियों को अंतिम प्रणाम किया और चिता में प्रवेश कर गयीं ।

इस तरह अपने सम्मान की रक्षा के लिए हमारे देश की इन वीरांगनाओं ने अपने प्राणों की आहुति दे दी ।

6 महीने और सात दिनों के खूनी खेल के बाद जब खिलजी किले में घुसा तब उसे कोई दुर्ग में कोई भी जीवित नहीं मिला । चारों और लाशें, दुर्गन्ध और मंडराते गिद्ध -कौवे ।

अब निर्णय आप पर है कि आप बताएँ जीत किसकी हुई ?

किसने बलिदान किया और कौन पूजा और सम्मान का उत्तराधिकारी है?

वास्तव में अल्लाउद्दीन खिलज़ी की जीत उसकी हार थी, क्योंकि उसे रानी पद्मिनी का शरीर हासिल नहीं हुआ, न मेवाड़ की पगड़ी उसके कदमों में गिरी।

साभार #अल्पना_वर्मा

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