Tuesday 14 February 2017

उत्तराखंड - या नया बंगाल

उत्तराखंड - या नया बंगाल !
देवभूमि में धर्मान्तरण चरम पर। खत्म हो रही पहाड़ी संस्कृति और हिन्दू धर्म ! आप मौन क्यों ?
उत्तराखंड का इतिहास पढ़े तो ज्ञात होता है कि उत्तराखंड के मूल निवासी शताब्दियों पहले भारत का इस्लामीकरण होता देख अपना जनेऊ और धर्म बचाने के लिए भारत के सबसे दुर्गम पहाड़ो में आकर बस गए थे। यह वो लोग थे जिन्होंने धर्म के लिए दुनिया में सबसे कठिन माना जाने वाला पहाड़ी जीवन चुना था। भूखे-प्यासे रह कर हमारे पुरखों ने उत्तराखंड के पहाड़ो को अपने खून से सींचा और अन्न उगाया। हर घर में देवता का वास था इसी लिए
उत्तराखंड को देवभूमि भी कहा जाने लगा।
     9 नवम्बर 2000 को जब उत्तराखंड अस्तित्व में आया तो पहाड़ के साथ ही तीन तराई के जिलों -देहरादून, हरिद्वार और उधम सिंह नगर को भी जोड़ा गया।यह वो तीन जिले है जिनमे मुसलमान सर्वाधिक थे।
2001 की जनगणना में उत्तराखंड की कुल आबादी में केवल 11.9% मुसलमान थे जो अधिकाँश (लगभग 10%) इन्ही तीन जिलों में थे, पहाड़ तब भी मुसलमान विहीन था। उत्तराखंड के अस्तित्व में आते ही उत्तराखंड-उत्तरप्रदेश की सीमा से लगे हुए जिलों (बरेली, मुरादाबाद, बिजनोर, रामपुर, सहारनपुर, मुज़फ्फरनगर) के जिहादी मुसलमानों को राजनैतिक षड्यंत्र के तहत बसाया जाने लगा। यहाँ तक कि आज उत्तराखंड में बांग्लादेशी मुसलमानों को भी मालिकाना हक मिल चुका है।
जिहादी हमले से उत्तराखंड में एक दशक में मुसलमानों की जनसंख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई और 2011 की जनगणना में वो 11.9% से बढ़ 13.94% हो गए। आज 2016 में मुसलमान जनसंख्या 16% का आंकड़ा कूद चुकी है।
उत्तराखंड में इन 16 वर्षों में ही 250 से अधिक मस्जिद सरकारी भूमि पर अनाधिकृत रूप से बनायीं गयी, 20 से अधिक मदरसे और 100 से अधिक नई मज़ारे उत्तराखंड की देवभूमि पर सरकारी भूमि पर कब्ज़ा कर बनायीं गयी। मुसलमानों के तुष्टिकरण में बीजेपी और कांग्रेस सरकारों में होड़ मची रही और अकेले देहरादून में ही सरकारी भूमि पर अनेको अवैध मुसलमान बस्तियां बस गयी। उत्तराखंड के पहाड़ो में पलायन चरम पर पहुँच गया और आज उत्तराखंड में ढाई लाख घरों में ताले टँगे है। इसका सीधा फायदा जिहादियों ने उठाया और आज आलम यह है कि उत्तराखंड के 5 तीर्थो -गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ और श्री हेमकुंड साहिब में प्रसाद बेचने वाले से लेकर घोडा हांकने वाले सब मुसलमान है। आज उत्तराखंड के दूरस्त गांव में बिजनोरी, मुरादाबादी और सहरानपुरिया मुसलमान देखे जा सकते है।
उत्तराखंड में आज कुल 16% वोटर ऐसे है जिनके अलग राज्यो में भी मताधिकार है परंतु इन ज़लील बीजेपी/कांग्रेसी नेताओं के चलते उन्हें आधार कार्ड भी आसानी से उपलब्ध है।
लव जिहाद चरम पर - 2000 से लेकर 2015 के मध्य कुल 4000 से भी अधिक हिन्दू बच्चियों को इन बाहरी मुस्लमान जिहादी युवकों द्वारा शिकार बना निकाह रचाया गया (अधिकाँश बेटिया पहाड़ी मूल की है), अगर एक लड़की में 4 बच्चो को भी जन्म दिया होगा तो लगभग 16000 नये मुसलमान उत्तराखंड की हिन्दू बेटियों की कोख से जन्म ले चुके है। यह सभी लव जिहादी देवबंद, बिजनोर, सहारनपुर, रामपुर, मुरादाबाद और बरेली की मस्जिदों से प्रशिक्षण लेकर इसी काम के लिए उत्तराखंड आते है और बीजेपी/कांग्रेस के दलाल नेता इन्हें पनाह देकर बसाते है।
ईसाई मिशनरी का गढ़ -उत्तराखंड
सेवा की आड़ में मतांतरण
भारत में एक मात्र राज्य उत्तराखंड है जिसे देवभूमि कहा जाता है, हिन्दू धर्म में सबसे पवित्र स्थान ऋषियों की तपोभूमि उत्तराखंड को ही माना गया है।
यूँ तो अठारवीं सदी में ही ईसाईयत उत्तराखंड में दस्तक दे चुकी थी परंतु उत्तराखंड के लोगो में सनातन धर्म में अटूट निष्ठा के चलते मतांतरण लगभग शून्य रहा। बीसवीं सदी में ईसाई मिशनरी ने सेवा का चोला पहन उत्तराखंड में कई स्कूल, कॉलेज और हॉस्पिटल खोले और उन्हें सफलता मिलनी शुरू हुई परंतु मतांतरण तब भी ना के ही बराबर हो सका। हताश हो चुकी ईसाई मिशनरी संस्थाएं अब विकल्प तलाशने लगी और उन्हें उनका असली शिकार आखिकार मिल ही गए -उत्तराखंड की चार जनजातियां (जौनसारी, बोक्सा, थारु और भूटिया)। घन, पाखण्ड, सेवा और अंधविश्वास को शस्त्र बना सनातन धर्म पर हमले शुरू हुए। हिंदी, गढ़वाली और कुमाउँनी भाषाओं में बाइबल बंटने लगी, यीशु को देवों का देव घोषित कर दिया गया, जय जगदीश हरे के स्थान पर जय यीशु देवा की आरती होने लगी, धन और नौकरी का लालच दे हज़ारों परिवारों को मतांतरित किया गया और आज की स्थिति यह है कि लगभग 60% बोक्सा, 50% थारु, 30-35% भूटिया एवम्  10-15%  जौनसारी परिवार ईसाई धर्म अपना चुके है। जनजातियो की दशा तो आप देख ही चुके है अब ज़रा दलित वर्ग पर भी इनका हमला देखे- ईसाई मिशनरी का मुख्य लक्ष्य मनुवाद का शिकार हिन्दू दलित वर्ग रहा है। आज भी हिन्दू समाज में जातिवाद ज़हर की तरह फैला हुआ है जिसका पूरा फायदा ईसाई मिशनरी उठाती है। वाल्मीकि बस्तियों, जाटव बस्तियों एवम् अन्य दलित बस्तियों में घर घर तक ईसाई मिशनरी का जाल बुना जा चुका है। मतांतरण किस हद तक हो चुका है यह आपकी कल्पना से भी परे है। यदि सच में कभी ईसाई मिशनरी का काम देखना हो तो रविवार को किसी भी चर्च चले जाओ और देखो जिन्हें आप हिन्दू समझते है वो वास्तव में ईसाई धर्म अपना चुके है।
जनजातियो एवम् दलित वर्ग ही नही अब ईसाई मिशनरी का खासा प्रभाव उत्तराखंड के युवाओं पर भी हो चुका है। सभ्रांत परिवारों के बच्चे ईसाई मिशनरी स्कूलों में पढ़ते है और कई स्कूल तो ऐसे है जहां नैतिक शास्त्र के रूप में बाइबल को अनिवार्य किया जा चुका है। इन सम्पन्न परिवारों के बच्चों में बचपन से ही सनातन धर्म के प्रति घृणा भरी जाती है, पहला प्रयास उन्हें ईसाई बनाने का और यदि सफल ना हो तो दूसरा लक्ष्य इन बच्चों को नास्तिक बनाना रहता है और इसमें बहुत बड़ी सफलता इन ढोंगियों को मिलने लगी है। युवाओं को रिझाने के लिए म्यूजिकल बैंड और संगीत का सहारा लिया जाता है, 'लव जिहाद' की ही भाँती यह ईसाई मिशनरी 'लव क्रूसेड' चलाते है और युवा वर्ग को प्यार के जाल में फांस मतांतरित करते है।
ईसाई मतांतरण में सबसे गंभीर बात यह है कि मतांतरित होने वाले व्यक्ति का ना तो नाम बदला जाता है ना ही उपनाम जिस कारण अब इन लोगों को पहचान पाना बहुत कठिन हो गया है। दिन-प्रतिदिन ईसाई मतांतरण बढ़ता जा रहा है, आंकड़ो में भारत में केवल 2% ईसाई नज़र आते है परंतु वास्तविकता में आज भारत में लगभग 8-8.5% ईसाई है जो सर्वरजनिक रूप से स्वयं को ईसाई नही बताते क्योकि इनमे अधिकाँश आरक्षित श्रेणी में आते है और इसी कारण आरक्षण ना खो देने के डर से यह लोग स्वयं को सरकारी दरतवेजो में हिन्दू दर्शाते है क्योकि मतांतरित होते ही एक व्यक्ति आरक्षण का अधिकार खो देता है।
मतांतरण का केवल एक मुख्य उद्देश्य है किसी भी प्रकार सनातन धर्म को नष्ट कर एवम् हिन्दू वर्चस्व को समाप्त कर भारत को भी ईसाई राष्ट्र बनाना।

Source: Facebook

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