Tuesday, 4 July 2017

वेद_vs_विज्ञान भाग - २४, हृदय और उसकी कार्यप्रणाली

#वेद_vs_विज्ञान भाग - 24
                         #हृदय और उसकी कार्यप्रणाली
                      ( heart  and its functioning)
#परिचय -
ह्रदय एक पेशीय (muscular) अंग है, जो सभी कशेरुकी (vertebrate) जीवों में आवृत ताल बद्ध संकुचन के द्वारा रक्त का प्रवाह शरीर के सभी भागो तक पहुचाता है।
कशेरुकियों का ह्रदय हृद पेशी (cardiac muscle) से बना होता है, जो एक अनैच्छिक पेशी (involuntary muscle) उतक है, जो केवल ह्रदय अंग में ही पाया जाता है। औसतन मानव ह्रदय एक मिनट में ७२ बार धड़कता है, जो (लगभग ६६वर्ष) एक जीवन काल में २.५ बिलियन बार धड़कता है। इसका भार औसतन महिलाओं में २५० से ३०० ग्राम और पुरुषों में ३०० से ३५० ग्राम होता है।

#आधुनिक विज्ञान के मतानुसार -
विलियम हार्वे एक ब्रिटिश चिकित्सा विज्ञानी थे, जिन्हीने अपने विभिन्न प्रयोगों द्वारा रक्त के प्रवाह पर निष्कर्ष निकला, और उनका यह शोध 1628 में प्रकाशित हुआ| उन्होंने सिर्फ इस बात की ही खोज नहीं की थी की रक्त शरीर में वाहिकाओं के माध्यम से बहता है, बल्कि उन्होंने दो चरणों वाली रक्त परिसंचरण की पूरी प्रक्रिया की खोज की| उन्होंने इस बात का पता लगाया की रक्त ह्रदय से फेफड़ों में जाता है, जहाँ यह शुद्ध होकर वापस ह्रदय में आता है|
ह्रदय की शारीरिकी के बारे में आधुनिक विचार हृद विज्ञानी डा. फ्रांसिस्को टोरेंट -गास्प (Francesco Torrent-Guasp) ने दिए, जिन्होंने १९९७ में ह्रदय के दर्शन और कार्य के बारे में अपने सिद्धांत को, अध्ययन के ४० से भी अधिक सालों के बाद, प्रकाशित किया।

#वैदिक ज्ञान - हृदय के संबंध में पश्चिमी देशों का ज्ञान बहुत अर्वाचीन काल का है। विलियम हार्वे नामक व्रिटिश वैज्ञानिक ने सन्‌ १६२८ में अपने प्रयोगों से यह प्रतिपादित किया था कि रक्त का पहुंचना हृदय के लिए आवश्यक है। परन्तु वह यह नहीं बता सका कि रक्त कैसे पहुंचता है। कुछ वर्षों बाद सन्‌ १६६९ में इटालियन वैज्ञानिक मार्शेलों मल्फीगी ने उस प्रक्रिया को उद्घाटित किया, जिससे रक्त हृदय में पहुंचता है।

परन्तु भारत में उंसके हजारो वर्षों पूर्व ‘शतपथ व्राह्मण‘ में हृदय के द्वारा होने वाली सम्पूर्ण प्रक्रिया का वर्णन मिलता है। उसमें कहा गया है-

हरतेर्दतातेरयतेर्हृदय शब्द:- निरुक्त

अर्थात्‌-लेना, देना तथा घुमाना इन तीन क्रियाओं को हृदय शब्द अभिव्यक्त करता है।

इसी प्रकार से नाड़ी ज्ञानम्‌ ग्रंथ में लिखा है-
तत्संकोचं च विकासं च स्वत: कुर्यात्पुन: पुन:

अर्थात्‌-हृदय स्वयं ही संकोच और फैलाव की क्रिया बारम्बार करता रहेगा। एक-दूसरे ग्रंथ भेल संहिता में वर्णन आता है-

हृदो रसो निस्सरित तस्मादेति च सर्वश:।
सिराभिर्हृदयं वैति तस्मात्तत्प्रभवा: सिरा:॥

अर्थात्‌- हृदय से रक्त निकलता है, वहां से ही शरीर के सभी भागों में जाता है, रक्त नलिकाओं के द्वारा हृदय को जाता है, रक्त नलिका भी उसी से बनी हैं।

#विशेष - सनातन धर्म प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञान अर्जित करने के लिये प्रोत्साहित करता है। अन्य धर्मों के विपरीत अन्धविशवास में यक़ीन करने के बजाय सनातन जीवन में जिज्ञासा को सदैव सराहा गया है। धार्मिक विषयों पर जिरह करने पर कोई पाबन्दी नहीं। यही कारण है कि आदिकाल से ही हिन्दू सभ्यता ने संसार को विज्ञान, कला और विद्या के प्रत्येक क्षेत्र में अपूर्व, मौलिक तथा प्रभावशाली योगदान दिया है।

साभार: अजेष्ठ त्रिपाठी, https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=279537892512623&id=100013692425716

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