पाँच तत्वों- पृथ्वी, आकाश, वायु, अग्नि और जल- से समुद्भूत ही समस्त जीवों के शरीर हैं। जो जिस-जिस तत्व से संबंधित है, उनके अनुसार ही कार्यों में प्रवृत्त होते हैं, इसलिए उपासना करने वाले जीवों को अभीष्ट सिद्धि प्राप्त करने के लिए ब्रह्म के उस रूप की ही कल्पना होती है, जिस तत्व से उसका संबंध है।
आकाशस्याधिपो विष्णुरग्नेश्चैव महेश्वरी।
वायोः सूर्यः क्षितेरीशो जीवनस्य गणाधिपः॥
अर्थात आकाश तत्व के अधिष्ठाता विष्णु, अग्नि तत्व की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा, वायु तत्व के अधिष्ठाता सूर्य, पृथ्वी तत्व के अधिष्ठाता शिव और जल तत्व के अधिष्ठाता गणेश हैं।
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिं हवामहे,
निधीनां त्वा निधिपतिं हवामहे
वसो मम अहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्।। (यजुर्वेद 23/19)
गण के ईश्वर , गण के अध्यक्ष , गण -पति !
यह गण कितना शक्तिशाली रहा होगा ? दूर-दूर तक इसका प्रभाव होगा ।
इसका टोटम या गणगोत्र हस्ति था ।
हस्तिनापुर के संबंध में डा. रामविलासशर्मा ने कहा था कि निश्चित ही इसका सूत्र हस्ति से जुडता है ।
एक बहुत पुरानी लोककहानी है , जिसमें गान्धारी ने सोने के हाथी की पूजा की थी किन्तु जब कुन्ती पूजन को आयी तो उसे मना कर दिया गया , तब अर्जुन ने ऐरावत को धरती पर बुलवाया । जिसे हम आकाशगंगा कहते हैं उसे इस कहानी ने ऐरावत की गैल बतलाया है। अर्जुन इस रास्ते से ऐरावत को धरती पर ले कर आया । सूत्र तो यहां हस्ति-पूजन का ही है ।
यही टोटम शिव-महादेव के साथ जुडता है , जब पार्वती अपने मैल से पुतला बना कर उसमें प्राण संचार करके द्वार पर नियुक्त कर देती हैं , शिव आते हैं तो द्वाररक्षक शिव महादेव को रोकते हैं , शिव त्रिशूल से गर्दन काट देते हैं , पार्वती रूठती हैं , कहती हैं कि इसे पुनर्जीवित करो ।
उधर हाल का जनमा हस्ति मिल जाता है और शिवमहादेव हस्तिमुख जोड कर द्वारदेव को प्रतिष्ठित कर देते हैं ।
यही गणेश शिवपार्वती की परिक्रमा करके प्रथम पूजा के अधिकारी बन जाते हैं ।
यह मिथक-कथा है , लेकिन यह इतिहास का प्रसंग नहीं है । कथा के अभिप्राय motif को समझना आवश्यक होगा ।
कोई भी कार्य विघ्नेश्वर की पूजा के बिना संपन्न नहीं किया जाता ।
ये विघ्नेश्वर कैसे बने , इसे लेकर जनपदों में भिन्न-भिन्न कहानियां हैं ।
मूषक भी एक गण था । उसे लेकर भी लोक में कहानियां हैं ।
जैसे पुरातत्वविद पुरावशेषों के आधार पर जीवन को खोजता है , उसी प्रकार लोकवार्ताशास्त्री भी लोकवार्ता में बिखरे हुए सूत्रों का अध्ययन करता है ।
गणपति के सूत्र भारत के बहुत बडे क्षेत्र में बिखरे हुए हैं और उनको संकलित करने का बहुत बडा काम हमारे सामने है , जिसे कई प्रादेशिक-भाषाओं के भाषाविदों और लोकवार्ताविदों को मिलकर करना होगा ।"
गणपति के सूत्र भारत के बहुत बडे क्षेत्र में बिखरे हुए हैं !
त्वं वाङ्मयस्त्वंचिन्मय: , त्वमानन्दमय: , त्वं सच्चिदानन्दमय: ,त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोsसि ।
गणपति-अथर्वशीर्ष में यह स्पष्ट किया गया कि संपूर्ण वाक ही जिनका विग्रह है , समग्र चेतना उनका ही रूप है , जिनका शरीर हाडमांस का नहीं है ,आनन्द ही उनका शरीर है , संपूर्ण ज्ञान- विज्ञान गणेश ही तो हैं ।
गणेश की उपासना वास्तव में किसी कहानी के नायक की उपासना नहीं ,
ज्ञान- विज्ञान की उपासना है , आनन्द की उपासना है , चेतना और वाक की उपासना है।
आ तू न॑ इन्द्र क्षु॒मन्तं॑ चि॒त्रं ग्रा॒भं सं गृ॑भाय ।
म॒हा॒ह॒स्ती दक्षि॑णेन ॥
वि॒द्मा हि त्वा॑ तुविकू॒र्मिं तु॒विदे॑ष्णं तु॒वीम॑घम् ।
तु॒वि॒मा॒त्रमवो॑भिः ॥
ऋग्वेदीय गणपतिसूक्त
तन्त्र विज्ञान का कथन है कि 'देवं भूत्वादेवं यजेत्।' अर्थात देव बनकर ही देवता की पूजा करें। अतः आवश्यक है कि सर्वप्रथम हम में उस देवता का भाव उत्पन्न हो, फिर हम उस देवता की आराधना करें।
साकार ईश्वर और उनके विग्रहों में निश्चित ही एक गूढ़ कूट संदेश भी छुपा होता है। गणपति के मानव मस्तिष्क के साथ साम्य को देखिए। गणपति के मूषक का नर्वस सिस्टम के एस्ट्रोसाइट्स और उनकी प्रिय दूर्बा का न्यूरान्स के साथ साम्य देखें।
ज्ञान के दो विभेद हैं..
१-परिमिता अर्थात जिसकी गणना की जा सके।इस ज्ञान के अधिपति हैं गणपति गणेश।इस ज्ञान का फंडामेंटल एलिमेंट है पार्टिकिल या कण।
२- अपरिमिता अर्थात जिसकी गणना संभव नहीं..ऐसे तत्वों की बौद्ध दर्शन में भी प्रचुरता है। अपरिमिता ज्ञान अर्थात सरस्वती। अपरिमिता का एसेंस है रस। रसौ वै सः।
तारागण खचित आकाश ही गणपति है और आकाश का बिखरा हुआ वैषम्य ही सरस्वती।
दृश्य ब्रह्मांड में एक खर्व आकाशगंगाएं हैं(100 Billion)। प्रारम्भिक स्रोत का एक चौथाई पदार्थ ही इस ब्रह्माण्ड को बनाने में खर्च हुआ। बचा हुआ उच्छिष्ठ पदार्थ ही लम्बोदर गणेश के रुप में परिवर्तित हुआ ( पुरूष सूक्त-3, 4)।
हमारी अपनी आकाशगंगा जो निहारिका मिल्की वे अवस्थित है उसमें 100 बिलियन अर्थात एक खर्व तारे हैं तथा मानव मस्तिष्क में इतने ही न्यूरान्स हैं। (शतपथ ब्राह्मण12/1/1/1)। गैलेक्सी , यूनिवर्स और इन्टरनेट के साम्य से जुड़े तमाम शोध पत्र आसानी से उपलब्ध हैं।आकाशगंगा गणपति का स्वरूप है। अहर्गन इकाई में गैलेक्सी सीमा की माप 48.49 है। गैलेक्सी की एक क्षेत्र में एकांकी गति एक मरूत है। हर आकाशगंगा के ऐसे 49 मरूत क्षेत्र हैं। चले मरूत उनचास। यह दृश्य ब्रह्मांड ही महागणपति है।
कम्प्यूटर का बाह्य नियंत्रक 'माउस' गणेश का वाहन है हालांकि त्रेता में इनका वाहन मयूर और कलियुग में अश्व है।
एक वर्ष के दो छोरों पर ज्ञान के दो अलग रूपों की उपासना हम करते हैं। भाद्र शुक्ल पक्ष चतुर्थी को गणेश पूजा और माघ शुक्ल पक्ष पंचमी को सरस्वती पूजा।
५२ शक्तिपीठों वाले आर्यावर्त की धरती ही पार्वती है और इसका कर -संग्रहकर्ता कलेक्टर गणपति(तैत्तिरीय )
इस आलेख की प्रस्तुति आदरणीय महामहोपाध्याय अरूण उपाध्याय जी एवं राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी जी के आशीर्वाद स्वरूप प्रेरणा, उनके लेखों और अनुवाद से संभव हुआ है। कुछ चित्र डा.राकेश श्रीवास्तव जी के सौजन्य से।
मूसा है सवारी का अजब खूब बे-नजीर,
क्या खूब कान पंजे और दुम है दिल पजीर।
खाते हैं मोतीचूर के, चंचल बड़ा शरीर,
दुख-दर्द को हरे हैं, दिल को बंधावें धीर।
हर आन ध्यान कीजिये सुमिरन गनेशजी,
देवेंगे रिद्धी-सिद्धि अन-धन गनेशजी।।(भक्तकवि ‘नजीर’)
Courtesy: Madhusudan Upadhyay, https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1150097235124008&id=100003712281282
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