#वीर_हेमचन्द्र_विक्रमदित्य
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आज एक बार फिर बताता हूँ
किससे और क्यों सँघर्ष कर रहा हूँ
हेमचन्द्र विक्रमादित्य ( हेमू ) उन महान हिन्दूवीरों में है जिन्हें आज़ादी के बाद कांग्रेस सरकार और नेहरु की इस्लाम परस्त नीतियों की वज़ह से जानबूझकर इतिहास में बेहद कम स्थान दिया गया क्योंकि कांग्रेस या यों कहें कि नेहरु सरकार का एकमात्र उद्देश्य था भारत की संस्कृति को नष्ट करना, इसमें भारत के जीवन दर्शन धर्म का मजाक उड़ाने उन्हें झूठा साबित करने के साथ साथ इस धरती के महान पुरुषों भुला देना भी शामिल था। सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य यानी हेमू, इतिहास के भुला दिए गए उन चुनिन्दा महानायकों में शामिल है जिन्होंने इतिहास का रुख पलट कर रख दिया था। हेमू ने बिलकुल अनजान से घर में जन्म लेकर, हिंदुस्तान के तख़्त पर राज़ किया। उसके अपार पराक्रम एवं लगातार अपराजित रहने की वजह से उसे विक्रमादित्य की उपाधि दी गयी।
अक्टूबर 6, 1556 में हेमू ने तरदी बेग खान (मुग़ल) को हारा कर दिल्ली पर विजय हासिल की। हुमायुँ ने जब वापस हमला कर शेर शाह सूरी के भाई को परस्त किया तब हेमू बंगाल में था, कुछ समय बाद हुमायूँ की मृत्यु हो गई। हेमू ने तब दिल्ली की तरफ रुख किया और रास्ते में बंगाल, बिहार उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश की कई रियासतों को फ़तेहकिया। आगरा में मुगलों के सेना नायक सिकंदर खान उज्बेग को जब पता चला की हेमू उनकी तरफ आ रहा है तो वह बिना युद्ध किये ही मैदान छोड़ कर भाग गया, इसके बाद हेमू ने 22 युद्ध जीते और दिल्ली सल्तनत का सम्राट बना।यही हेमू का राज्याभिषेक हुआ और उसे विक्रमादित्य की उपाधि से नवाजा गया। लगभग ३ शताब्दियों के मुस्लिम शासन के बाद पहली बार (कमसमय के लिए ही सही) कोई हिन्दू दिल्ली का राजा बना। हेमू ने १५५६ में अपना राज्याभिषेक करके अपना नाम हेमचन्द्र विक्रमादित्य रखा। हालांकि हेमू सिर्फ १ महिना ही दिल्ली के तख़्त पर रहा परन्तु ११९१ में पृथ्वीराज के पतन के बाद हेमू दिल्ली का पहला हिन्दू शासक बना।
हेमू का जन्म एक ब्राह्मण श्री रायपूरण दास के घर 1501 में अलवर राजस्थान में हुआ, जो उस वक़्त पुरोहित (पूजा पाठ करने वाले) थे, किन्तु बाद में मुगलों के द्वारा पुरोहितों को परेशान करने की वजह से रेवारी (हरियाणा) में आ कर नमक का व्यवसाय करने लगे। हेमू का पारिवारिक पेशा पुरोहिताई का था, परन्तु भारत में इस्लाम के स्थापित होने के बाद मुस्लिम बादशाहों ने हिन्दुओं के धार्मिक आयोज़नों पर रोक लगा दी इससे पुरोहिताई से घर चलाना मुश्किल हो गया था। हेमू धार्मिक प्रवृति के थे और संस्कृत, हिंदी, फारसी, अरबी व गणित के ज्ञाता थे। उन्हें घुड़सवारी का बहुत शौक था और वह कुश्ती में भी माहिर थे। सम्राट हेमू की बहन की शादी भार्गव परिवार में हुई थी जो उस समय के सम्राट शेरशाह सूरी के दरबार में तैनात थे।
हेमू के पिता जब रेवाड़ी आए उस समय हेमू 17 साल के थे। उन्होंने इराक और ईरान से गन पाउडर (बारूद) मंगाकर शेरशाह सूरी की सेना को सप्लाई करना शुरू किया।हेमू ने उसी वक़्त रेवारी में धातु से विभिन्न तरह के हथियार बनाने के काम की नींव रखी, जो आज भी रेवारी में ब्रास, कोंपर, स्टील के बर्तन के आदि बनाने के काम के रूप में अपनी एक अलग पहचान बनाए हुए है। हेमू ने यहां पर ब्रास से निर्मित तोपें भी बनानी शुरू की थी, जिनकी ढलाई भी यहीं पर होती थी। रेवाड़ी में तोपचीवाड़ा नामक वह स्थान आज भी है। यहां पर तोपची रहा करते थे तथा तोपों की ढलाई हुआ करती थी।हेमू ने शेरशाह सूरी के सेनाओं को खाना पहुँचाने का काम हाथ में लिया, हेमू की कद काठी और योग्यता देख कर शेरशाह ने अपनी सेना में रख लिया जल्दी ही हेमू शेरशाह का सेनापति बन गया, शेरशाह की असमय मृत्यु के बाद दिल्ली की सत्ता हेमू के हाथ में आगयी।
सन 1540 में शेरशाह सूरी ने हुमायुँ को हरा कर काबुल लौट जाने को विवश कर दिया था।शेर शाह सूरी की 1545 में मृत्यु के बाद इस्लामशाह ने उसकी गद्दी संभाली, इस्लाम शाह ने हेमू की प्रशासनिक क्षमता को पहचाना और उसे व्यापार एवं वित्त संबधी कार्यो के लिए अपना सलाहकार नियुक्त किया। हेमू ने अपनी योग्यता को सिद्ध किया और इस्लाम शाह का विश्वासपात्र बन गया। इस्लाम शाह हेमू से हर मसले पर राय लेने लगा, हेमू के काम से खुश होकर उसे सेना में खुफिया विभाग का प्रमुख बना दिया गया।1545 में शेरशाह सूरी की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र इस्लाम शाह उत्तर भारत का शासक बना।
लेकिन तबीयत खराब होने की वजह से इस्लाम शाह 1550 में दिल्ली से ग्वालियर चला गया और उसने हेमू को पंजाब का गवर्नर बना दिया। अपनी लगन और मेहनत से 1553 तक हेमू सूरी सल्तनत की सेना का मुख्य सेनापति व प्रधानमंत्री बन गया। कुल मिला कर पूरी तरह अफगानी सेना का नेतृत्व हेमू के हाथ में आ गया था। हेमू का सेना के भीतर जम के विरोध भी हुआ पर हेमू अपने सारे प्रतिद्वंदियो को एक एक कर हराता चला गया। उस समय तक हेमू की अफगान सैनिक जिनमे से अधिकतर का जन्म भारत में ही हुआ था। अपने आप को भारत का रहवासी मानने लग गए थे और वे मुग़ल शासकों को विदेशी मानते थे, इसी वजह से हेमू हिन्दू एवं अफगान दोनों में काफी लोकप्रिय हो गया था। 23 जुलाई 1555 को मुगल सम्राट हूमायूं की मृत्यु हो गई। उस समय हेमू बंगाल में था। हूमायूं की मृत्यु के बाद उसने संकल्प लिया कि वह मुगलों को परास्त कर एक बार फिर हिन्दू राष्ट्र की स्थापना कर सकता है। इसलिए हेमू ने अपनी सेना के साथ बिहार होते हुए दिल्ली की और कूच कर दिया। इस दौरान हेमू ने 22 लड़ाईयां लड़ीं और मुगलों को खदेड़कर दिल्ली पर कब्जा कर लिया। 7 अक्टूबर 1556 को दिल्ली के पुराने किले में हेमू का राज्याभिषेक हुआ और वह हेमू से सम्राट हेमचंद विक्रमादित्य बन गए।हेमू ने लगातार २२ युध्दों में मुगलों को धूल चटाकर एक के बाद एक जीत हासिल की। जब हेमू अपनी सेना के साथ निकलता था मुसलमान सरदार अपने किले छोड़कर भाग जाया करते थे, यहाँ तक की जब अकबर ने हेमू पर हमला करने की योजना बना रहा था तो उसके दरबारियों ने उसे समझाया था कि हेमू से मुकाबला करना आसान नहीं होगा।
१५५६ में पानीपत के दूसरे युद्ध में अकबर की सेना युद्ध हार चुकी थी और स्वयं अकबर बैरम खान के साथ भागने की तैयारी में था लेकिन दुर्भाग्य से हवा में छोड़ा गया एक तीर हेमू की आँख में लग गया। आँख में तीर लगा होने के बावजूद हेमू पूरी बहादुरी से अकबर सेना से लड़ता रहा और बेहोश होकर गिर गया। इससे हेमू की सेना में भगदड़ मच गयी मौके का फायदा उठा कर भारत के तथा कथित महान राजाअकबर ने उसकी बेहोशी की हालत में ही उसकी हत्या करके उसकी खाल में भूसा भरवा कर प्रदर्शनी के लिए दिल्ली के महल के दरवाज़े पर रखा। इसी अकबर को
इस देश के गुलाम इतिहासकार अकबर महान कहकर बुलाते हैं। इसके बाद दिल्ली तब तक मुगलों के कब्जे में रही जब तक मराठा शक्ति का उदय नहीं हुआ।आज कई लोग इतिहास के इस महान नायक को भुला चुके है, किन्तु मुगलों को कड़ी टक्कर देने की वजह से ही हिंदुस्तान कई विदेशी आक्रमणों से बचा रहा। आज भी हेमू की हवेली जर्जर हालत में रेवारी में है। जिस महानायक ने भारत में मुगलों की सत्ता का विनाश कर हिन्दू साम्राज्य की नींव दोबारा रखी आज उस महानायक के बारे में न स्कूलों में पढ़ाया जाता है न मीडिया में कोई चर्चा होती है।
पानीपत मे महान हिन्दू योद्धा हेमचन्द्र विक्रमादित्य का समाधि स्थल है, वर्तमान में इस स्थल पे किसी अब बिन कासिम बदरे इमाम की मजार अवैध रूप से (कब्ज करके) बनायी गयी है
इस समाधि को मुक्त करना लक्ष्य है मेरा, यह लड़ाई सिर्फ मेरी नहीं है। प्रशासन साथ नहीं है, न ही कोई नेता पार्टी
मैं अकेला निकला हु और साथ में कुछ सनातन सेवक
यह लड़ाई आप सभी की है , सहयोग दीजिये
अन्यथा चरखा खरीद लीजिये, सूत काटिये
आप स्वयं अपने आने वाली पीढ़ी के लिए गांधी नेहरू सिद्ध होंगे।
आपका अपना राम
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