#क्या_योगियों_की_समाधि_पूजन और #दरगाह_भक्ति #एक_समान_है????
देखिए, दरगाह पूजन और समाधि पूजन समान नहीं है।
कैसे??????
इसके लिए हमें सनातन की संन्यास परंपरा और इस्लाम में फकीर की अवस्था समझने की आवश्यकता है।
देखिए, इस्लाम कोई धर्म नहीं है,अपितु, एक #युद्धोन्मत्त (war monger) संप्रदाय है इसका आध्यात्मिक पथ जो #सूफी कहलाता है भारत में विशेषतः नाथ संप्रदाय का चोरी का माल है। असली सूफी शियाओं में हुए और उन्हें सुन्नियों ने ईरान से आगे बढ़ने ही नहीं दिया। यहाँ तो लुटेरों के भेदिए सूफी बनकर आए। विदित ही है साईं भी उन्हीं में से एक रहे हैं।
ऐसे लोग जो छलकपट लूटमार और स्वपूजनप्रिय होते हैं, बहुत देहासक्त होते हैं। मृत्यु के बाद अपनी दफन देह के आसपास मंडराते रहते हैं और पतले रक्तवाले आत्मबलहीन लोगों की ताक में रहते हैं। ये अकेले नहीं होते धीरे धीरे अपना कुनबा बढ़ाते हैं।अर्थात एक दरगाह मतलब एक #प्रेतसंघ।
फिर बारबार अपने आसपास आनेवाले मूर्खों की प्राण ऊर्जा खाने की भूख में उनके घरों तक चले जाते हैं।वहाँ भी अनुकूल वातावरण मिलता है।इस प्रकार #गीता का श्लोक सत्य हो जाता है कि "जो जिसे भजता है देहत्याग के बाद उसी को प्राप्त होता है।" *देहांत के बाद उनके ये कथित भक्त उस पिशाच कुनबे की शोभा बढ़ाते हैं।*
दूसरी ओर संन्यासी होने की प्रक्रिया इतनी दुरूह है कि हर कोई नहीं होता। हमारे सनातन में सिर्फ दशनामी संन्यासी और नाथ संन्यासी को भू समाधि या जल समाधि देते हैं।शेष सब अग्नि को अर्पण हैं।
एक संन्यासी जब विरजाहोम करके संन्यास लेता है तो अपनी पिछली ७ पीढ़ियों और अगली ७ पीढ़ियों सहित स्वयं का भी पिंडदान कर देता है।
संन्यास के बाद उसे सिर्फ देहपात होने तक अनासक्त भाव से विचरण करना है। (पतित संन्यासी के लिए अलग विधान हैं।)
फिर कुछ सिद्ध ऐसे हैं जो जीवंत समाधि लेते हैं।योगबल से अपना देह स्वयं त्यागते हैं। इस वजह से जीवंत समाधि या कोई भी समाधि किसी भी दरगाह से श्रेष्ठ और पूज्य है क्योंकि वहाँ एक ऐसी देह है जिसके भीतर का चैतन्य जीवनकाल में ही उससे संबंध तोड़ चुका था।उस देह का परम शुद्धिकरण हुआ है योगाग्नि द्वारा। वहाँ नमन से आप परमात्मा को ही नमन कर रहे हैं।
आप योगियों की समाधि का पूजन करें, उसमें दोष नहीं है। वैसे भी उन्हें मात्र नमन किया जाता है।
किंतु .......
दरगाह भक्ति या साईं भक्ति में डूबे गधों से #विचित्रोपनिषद का ज्ञान प्राप्त होता है।
"हमें जहाँ से कृपा मिले वहाँ सिर झुकाएंगे। ....सब ब्रह्म है तो फिर साईं भी ब्रह्म है,मज़ार भी ब्रह्म है,बाबा फकीर भी ब्रह्म है,पर्वत, नदी ये वो सब ब्रह्म है....।
नफरत मत फैलाओ...... ये धर्म संप्रदाय के झगड़े हमें नहीं चाहिए।..... शंकराचार्य कौन होता है हमें समझाने वाला???.... हम बाबा फकीरों में भगवान देखें तो आपको क्या तकलीफ है?????"
गजब के मूढ़ तर्क हैं। अपने बाप को बाप नहीं कहेंगे। पंचर जोड़नेवाले चचा में बाप दिख रहा है क्योंकि उसने ५ पैसे की दो गोली बाँटी थी।
और ईश्वर सबका बाप है इसलिए सब बाप हैं । बाप भी,मामा भी,पड़ौसी भी,चचा भी और भी कई चर अचर बाप।
बढ़िया.....। इसीलिए घर में घुस के जूते मारे कटुवों ने और अपन ने खाए.... वो भी १००० वर्ष तक।
यही सोच जिम्मेदार है जो तय ही नहीं कर पाती कि श्रद्धा किस पर क्यों और कितनी???
*न गुरु परंपरा का भान है और न शास्त्र मर्यादा। बस मेरा स्वार्थ तय करेगा मैं किसे बाप कहूँगा।*
#अज्ञेय
Courtesy: https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=464480580559627&id=100009930676208
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