स्त्री-पुरुष संबंध: पूर्व और पश्चिम
भीड पर एक पत्थर मार कर कुछ कहना चाहता हूँ, कि रूको मेरी बात सुनो। आज, मैं तालियों के लिए नहीं लिख रहा। वैसे दुःख पर तालियाँ कैसी? एक दुःसाहस ही करता हूँ। यह मेरा अपना दृष्टिकोण है। आज ही सुन लो; कल देर हो जाएगी।
एक सुशुप्त ज्वालामुखी देश में उबाल पर है, कब विस्फोट करेगा, कहा नहीं जा सकता। इस लिए चेताना चाहता हूँ। मेरे कहने का, आधार प्रामाणिक निरीक्षण है। और, प्रत्येक निरीक्षण वैयक्तिक ही होता है। उसपर भी निरीक्षक की दृष्टि का अपना रंग चढा होता है। इस लिए सचेत हूँ। पर आप सभी पाठकों पर विचार करने का उत्तरदायित्व है। सोच के पश्चात, आलेख को कूडे में फेंक दे, आपने पढ लिया, यही काफी है। सच स्वयं अपनी शक्ति होता है। उसका बीजारोपण आप के मस्तिष्क में अपना स्थान स्वयं बनाएगा। आप अपना स्वतंत्र अलग दृष्टिकोण और निरीक्षण भी रखें, तो, विषय की ठीक जानकारी उपलब्ध होगी। सभी को गम्भीर चेतावनी देना मेरा उद्देश्य है।
अमरीका में, स्त्री पुरुष संबंध:
अमरीका में, बलात्कार का विशेष समाचार नहीं सुनाई देता। यहाँ स्त्री-पुरुषों के दैहिक संबंधों को भी गम्भीरता से नहीं देखा जाता। समाज के मूल्य घटिया ही हैं।संवेदन-शीलता अलग है। और, पश्चिम की प्रथाएँ, रूढियाँ, रीतियाँ, चलन, व्यवहार इत्यादि भी बहुत कुछ अलग ही हैं।
रूढियाँ, परम्पराएँ, भाषाका चलन, मान्यताएँ अलग।
पुरुषों के वसतिग्रहों के स्नानघरो में युवा (पुरुष) छात्र निर्वस्त्र स्नान करते दिखेंगे। स्नान घरो में पुरुषों की अलग व्यवस्था होती अवश्य है, पर, पुरुष पुरुष से कुछ छिपाता नहीं है। वैसी ही महिलाओं की भी व्यवस्था होती ही है। जहाँ हम पानी का प्रयोग किए बिना स्वच्छता अनुभव नहीं करते, वहाँ वे कागज के प्रयोग से स्वच्छ अनुभव कर सकते हैं।
ऐसे, रूढियाँ, परम्पराएँ, भाषाका चलन, मान्यताएँ भी अलग हैं। पश्चिम और पूरब में बहुत अंतर है। इस लिए भाषा से जो संप्रेषित होता है, उसका अर्थ अलग ना भी हो, पर उसकी संवेदन-शीलता की मात्रा अवश्य अलग होती है।ऐसी संवेदनशीलता की मात्रा का प्रमाण दिखाना संभव नहीं। फिर भी भारतीय पाठकों के लिए, कुछ निर्देशित किया जा सकता है। ऐसी बहुत सी रूढियाँ हैं, जो सर्व साधारण भारतीय के लिए बहुत महत्व रखती है, पर पश्चिम में उसका इतना महत्व नहीं होता।इस कठिनाई के उपरान्त, भी कुछ कहनेका साहस कर रहा हूँ। मानता हूँ, कि ऐसे आलेख से भारत को कुछ लाभ अवश्य होगा।
अपरिवर्तनीय प्रक्रिया:
मेरी दृढ मान्यता है, कि, बलात्कार अत्यन्त बुरा है। और मानता हूँ, कि, विवाहेतर संबंध भी बहुत घृणित और अनैतिक होते हैं, जो अंततः स्वस्थ समाज का विनाश करने की क्षमता रखते है। वहाँ से वापस सुधर कर, समाज पुनः स्वास्थ्य प्राप्त नहीं कर सकता।यह ( Irreversible Process) अपरिवर्तनीय प्रक्रिया है।यह ऐसा विष है,जिसे एक ही बार,पी कर मरा जा सकता है। मर कर वापस जीवित नहीं हुआ जाता।
मूर्ख की निजी अनुभव से सीख:
बिस्मार्क कहते हैं, कि– "मूर्ख अपने निजी अनुभव से सीखते हैं। मैं दूसरों के अनुभव से सीखना, पसंद करता हूँ।"
Fools learn from experience. I prefer to learn from the experience of others.—Otto Von Bismarck
समाज मरने पर फिरसे जीवित नहीं होगा। अपनी सनातनता पर ऐसा अतिरेकी विश्वास रखकर गलती ना करें। इसी प्रकार के ढीले आचरण से कुटुम्ब टूटते हैं। समाज को नष्ट करने में इसी का बहुत बडा योगदान होता है।
सम्मति से सम्भोग भी अंततः समाज को नष्ट करने की दिशा में ही गति कर रहा है। जब, एक कुटुम्ब टूटता है, तो दो व्यक्ति मुक्त हो जाते हैं। बिना संभोग, संयमित जीवन की कोई संकल्पना भी नहीं है। तो ये दो मुक्त प्राणी , दूसरे दो कुटुम्ब तोडने का संभाव्य कारण बन जाते हैं। ऐसा चारों ओर, हो रहा है, ये देखा जा सकता है। इसी प्रक्रिया के बढने से, समाज की सुगठित व्यवस्था नष्ट हो रही है। आज अमरिका में,उन कुटुम्बों की संख्या, जिसमें माता पिता अपनी सगी सन्तानों के साथ रहते हो, मात्र २०-२१ % बची हैं।
परम्परा वापस खडी नहीं हो सकती।
कुछ प्रगतिवादी इसे स्वीकार नहीं करेंगे। सारे विज्ञापन, दूरदर्शन, समाचार पत्र, संगणक जिन चित्रों को आज कल, प्रसारित करते हैं; ये हमारी अगली पीढियों को नष्ट करने की क्षमता रखते हैं। दुश्चरित्र और संस्कारहीन, वयस्कों को भी प्रभावित कर सकते हैं। सत्य कटु होता है, कटु ही, लिख रहा हूँ। मुझे लोक प्रियता (पॉप्युलॅरीटी कंटेस्ट) की स्पर्धा जीतनी नहीं है।
संस्कार कैसे करें?
इन समाचार पत्रों को रोका निश्चित नहीं जा सकता। पर आप अपने सम्पर्क में आये युवाओं को, अपनी सन्तानों को, प्रभावित कर सकते हैं।
कैसे?
आर्य-समाज और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इत्यादि की विभिन्न शाखाओं में बालकों को भेजा जा सकता है। अन्य बालकों को, युवाओं को, प्रोत्साहित कर सकते हैं।
संस्कार की प्रक्रिया
६-७ वर्ष तक बालक अनुकरण से संस्कार ग्रहण करता है। ७ से १२-१३ तक मित्रों (संगत)की देखा देखी। १३ से आगे उसे तार्किक उत्तरों से संस्कारित किया जा सकता है।बाल-किशोर-युवा-मानस, कोमल होता है।
५ इंद्रियों से वह बाहर का वातावरण झेल कर स्मृतियाँ इकठ्ठी करते रहता है। इन स्मृतियों के आधार पर, उसकी इच्छाएँ और व्यवहार बनकर आदत (संस्कार) हो जाता है। जैसा बीज बोया जाएगा, वैसा ही फल प्राप्त होगा। बबूल बोकर आम नहीं मिलता।आप अनुकरण के लिए वातावरण -और प्रत्यक्ष उदाहरण उपलब्ध कराएं।अच्छे मित्रों का चयन करें।और महान विभूतियों के चरित्र सुनाए- पढवाएं। सोचिए।
विवेकानन्द जी ने अलग शब्दो में,कहा है; **मुझे एक शिशु दीजिए, मैं उसे महान बना के दिखा दूंगा।** यह अति संक्षिप्त प्रक्रिया दिखाई है। (वैसे विषय अलग आलेख की सामग्री है ) युवा सन्तानों के बिगडने पर,जीवन भर पछताते हुए मित्र देखें हैं।
कुटुम्ब नष्ट होते ही समाज नष्ट होगा।
रोम और यूनान की सभ्यताएँ (संस्कृतियाँ तो वे थी ही नहीं ) नष्ट होने का एक प्रमुख कारण वहां की कुटुम्ब संस्था की अवनति बताया जाता है। हमारी सनातनता का भी एक प्रबल और प्रमुख कारण हमारी सुदृढ विवाह और कुटुम्ब संस्था है। विवाह को, हमने संस्कार माना है; और समर्पण भाव को प्राधान्य देकर उसे अभेद्य बनाया है। साथ साथ हमारा कर्तव्य पर भार भी उसे अटूट बनाता है। बाहर का दुष्ट प्रभाव निम्नतम करने के लिए, “पर स्त्री मातृ समान” के आदर्श से, हमने उसे परोक्ष रीति से भी दृढ किया है।
अधिकार के आधार पर विवाह करनेवाले अधिकारों की पूर्ति न होने पर अलग हो जाएंगे। कर्तव्यों की संकल्पना से विवाह करनेवाले परस्पर कर्तव्य करते करते प्रेम और कृतज्ञ भाव की वृद्धि करते रहेंगे। ऐसे, विवाहित जोडे परस्पर हितकारी कर्मों का अनुभव कर, तृप्ति का अनुभव कर सकते है। अधिकार की संविदा से साथ आये हुए जोडे प्राप्ति की इच्छा से पीडित होते हैं। जब अधिकार की पूर्ति नहीं होती, तो, अस्वस्थ और असंतुष्ट हो जाते हैं, और संघर्ष होने लगता है।
कर्तव्य की भावना, साथ आये हुओं को, एक दूसरे के प्रति आंतरिक प्रेम, और त्याग करने की प्रेरणा देती है। फिर संघर्ष हुआ, तो भी न्यूनतम होता है। ऐसे ही, हमारी परम्परा ने आज तक हमारी रक्षा ही की है।
अनुरोध: उन्मुक्त हो के टिप्पणी दें।
Courtesy: https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10155342758669680&id=671199679
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