1857 की दिल्ली में हार का सबसे बड़ा खलनायक रहा है-- बहादुर शाह ज़फर, उसकी सबसे छोटी बेगम जीनत महल और उनका बेटा मिर्जा जवांबख्त।
ग़दर होने के कुछ ही दिन बाद बहादुर शाह ज़फर ने अपने को सेफ कर लिया और जनरल हॉडसन से न मारे जाने का एग्रीमेंट भी कर लिया था। साथ में उनसे अपने साथ कुछ और लोगों को बचाए जाने का भी दरख्वास्त किया जिसको हॉडसन ने मान लिया था।
हॉडसन ने ये सब अग्रीमेंट ब्रिटिश हुकूमत को विश्वास में लेकर किया था और इसको कागज़ पर मुहर के साथ बनाया था। (source: National Archive, Delhi) .
ज़फर को गिरफ्तार किया गया तो अँगरेज़ उसे मारना चाहते थे लेकिन ज़फर ने हॉडसन से किये अनुबंध की दुहाई दी। लिखित करारनामे की वजह से ज़फर को गिरफ्तार कर उस पर मुकदमा चलाया गया।
27 जनवरी 1858 को शुरू हुए इस मुक़दमे में ज़फर ने खुद को बेगुनाह बता कर मुकदमा लड़ा। National Archive, New Delhi, British Library Board में रखे दस्तावेज ..
गिरफ्तार ज़फर की रखवाली का जिम्मा संभालने वाले Russel ने अपनी जीजी को लिखी चिट्ठियाँ, मुक़दमे के दौरान Edwards Omainy के लिखे कागजात और मुक़दमे के सारे दस्तावेज यह सिद्ध करते हैं कि ज़फर ने खुद को इस ग़दर से अलग बताया था।
ज़फर ने मुकदमें के दौरान बयान दिया कि पुरबिया लड़ाके जिसको वो तिलंगे बोलता था, उन्होंने उसके महल में घुस के जबरदस्ती उसको बंदी बना लिया था और गदर के आदेशों पर उनके बेटे मिर्ज़ा मुग़ल ने मुहर लगाई थी।
मिर्ज़ा मुग़ल ने मेजर बख्त खां और मौलाना सरफ़राज़ अली के साथ मिलकर दिल्ली में तैमूर वंश के बादशाही के वापस आने का ख्वाब भी देखा था।
इस सब ग़दर से बहादुर शाह ज़फर का कोई मतलब नहीं है, मुझ बूढ़े को पहले तिलंगों और फिर बाद में मिर्ज़ा मुग़ल ने बंदी बना लिया था ।
मिर्ज़ा मुग़ल को दिल्ली फतह के बाद अंग्रेज़ों ने फांसी दे दिया था, वहीँ ज़फर के बड़े बेटे मिर्ज़ा फखरू को ज़ीनत महल ने ज़हर देकर मार ड़ाला था जिससे कि उसका बेटा मिर्ज़ा जवांबख्त वली ही अहद संभाल सके ।
ज़फर को benefit of doubt मिला तथा हॉडसन से किया करार उसके काम आया। बहादुर शाह ज़फर को न मारने और कैद करने तथा दिल्ली छोड़ने की सजा सुनाई गयी कि वह जीवन पर्यंत अंग्रेज़ों का बंदी रहेगा।
ज़फर को रंगून भेजा गया। करारनामे के अनुसार ज़फर के मांग पर ज़फर की चहेती बेग़म ज़ीनत महल, मिर्ज़ा जवांबख्त तथा उसकी पत्नी बीबी नवाब शाह जमानी बेग़म, सास मकबरून्निसा, ज़फर के हरम की तीस रखैलें और रखैल से पैदा बेटा मिर्ज़ा शाह अब्बास को उसके साथ रंगून भेजा गया था।
बहादुर शाह जफर के काफिले का सफर रोज तड़के शुरू होता था और दिन में कुछ देर फिर आराम के पश्चात रात्री 9 बजे जाकर खत्म होता था।
ज़फर की मांग पर ज़फर को उसके अनुसार पकवान और अन्य सामान दिए जाते थे। ज़फर की ख्वाइश दरिया और समुद देखने की थी तो रास्ता गंगा में नांव पर भी तय किया गया और पानी के जहाज़ से बर्मा (म्यांमार) के सरहद तक लाया गया। साथ में चलने वाले सुरक्षा का इंतज़ाम देख रहे अधिकारी ने अनुसार उसको बहादुर शाह ज़फर और उसके चहेते लोग इस यात्रा को पिकनिक के जैसा ख़ुशी ख़ुशी मनाते जा रहे थे।
इलाहबाद से मिर्ज़ापुर पटना होते हुए गंगा के रास्ते बंगाल लाया गया जहाँ पानी के जहाज से बर्मा भेज दिया गया ... ज़फर के सुरक्षा में लगे Russel का मानना था कि उसका बस चलता तो वो मिर्ज़ा जवांबख्त को मार डालता क्योंकि वह इतना बद्तमीज़, गांजेबाज और दारुबाज उसने कहीं नहीं देखा था। वो जफ़र से बदतमीजी करता था और गालियां भी देता था।
Russel के द्वारा अपनी जीजी को लिखी चिट्ठी (Available at: British Library Board, London) में उसने जीनत महल को दुनिया की सबसे मक्कार और शातिर महिला माना था क्योंकि वो अंत में बर्मा पहुँचने तक जवांबख्त को वली अहद बनाने के लिए अंग्रेज़ों से डील करना चाहती थी।
ज़फर ने अपने चहेते शायर और मशहूर शायर जोंक के शागिर्द जफ़र देहलवी या फिर मिर्ज़ा ग़ालिब को बचाने के लिए कोई डील नहीं किया।
ज़हीर देहलवी जब बच्चे थे तभी उसकी माँ ने ज़फर के बेटे मिर्ज़ा फखरू से निकाह कर लिया, तो इस तरह वो ज़फर का नाती भी था। ज़फर देहलवी दिल्ली से जोंक के शायरी और कलामों को लेकर जान बचा के भाग निकला था।
अवध के नवाबों ने शरण नहीं दिया तो वो कुछ दिन रामपुर के नवाब के यहाँ रहा और फिर राजा उदयपुर के यहाँ कुछ दिन रहने के बाद वो लाहौर आ गया।
बाद में वो हैदराबाद में जाके रहा। वहां उसने जोंक के कलामों और शायरी को गाके शेष जीवन काटा। उसने दिल्ली की याद में कुछ किताबें भी लिखी। जबकि मिर्ज़ा ग़ालिब को बल्लीमारान इलाके में रह रहे अंग्रज़ों के मददगार पंजाबियों ने बचाया था।
ग़दर के कुछ और तथ्य :
भगीरथ राव उर्फ़ जियाजीराव सिंधिया(अब के ज्योतिरादित्य सिंधिया के पांच पीढ़ी पहले के पूर्वज) ग्वालियर के राजा थे।
1857 की लड़ाई में इनका योगदान देख लीजिये। उनके बेटे माधोराव सिंधिया और अंग्रेज़ों के बीच 377 का खेल चलता था।
1857 की लड़ाई में तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई और राव साहब जब अंग्रेज़ों से झाँसी में लड़ रहे थे, उधर नाना साहेब ने कानपुर हुए अवध का कुछ हिस्सा जीत लिया था। तात्या टोपे और रानी लक्ष्मीबाई को हराने और मार डालने में सबसे बड़ी भूमिका सिन्धिया परिवार ने निभाई थी।
अंग्रेज़ों के मदद के लिए जियाजीराव सिंधिया ने झाँसी के उत्तर मोरार से रानी लक्ष्मीबाई के खिलाफ मोर्चा खोल दिया जिससे उनकी सेना को दो टुकड़ों में बांटना पड़ा। इधर नाना साहेब को अवध के नवाबों ने दो लड़ाइयों में फंसा दिया था।
कानपूर में कब्जे के बाद नाना साहेब ने 120 अँगरेज़ बंदी बना लिए थे और उनको हुसैनी खातून उर्फ़ हुसैनी बेगम के यहाँ रखा। उनका मानना था कि वो इन 120 के जान के बदले अंग्रेज़ों को इलाहबाद छोड़ने की डील कर लेंगे।
लेकिन नाना साहेब जिस अजीमुल्लाह खान को अपना सबसे भरोसेमन्द सहायक मानते थे उसने जब अंग्रेज़ इलाहबाद से कानपूर लड़ने आये तो उन 120 अंग्रेजों को अज़ीमुल्लाह खान ने मरवा डाला।
हुसैनी बेगम ने अज़ीमुल्लाह खान की मदद की और खुद गोली चलाई। अँगरेज़ बच्चों को मारने के लिए कसाई बुला कर लाये थे ये दोनों। अंग्रेज़ों ने बाद में पता लगाया कि ये सब अवध के नवाबों के कहने पर किया जिससे नाना साहेब अंग्रेज़ों से डील न कर पाएं और लड़ाई जारी रहे।
General Havelock की रिपोर्ट के अनुसार इस देश के लोगों ने ही अपनी विजय को पराजय में बदल दिया और इतनी आसानी से उसने चन्द दिनों में ही कानपुर पर दुबारा कब्ज़ा जमा लिया।
इतिहास में इतना घालमेल पढ़ाया गया है कि असलियत सुन के आप या तो विश्वास नहीं करेंगे या फिर खुद को कोसेंगे कि, अब तक क्या झख मार रहे थे !
साभार - Gp Singh जी
Courtesy:
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