Tuesday, 16 May 2017

दलित समाज की मुख्य वर्ग में स्थापना की आवश्यकता

कुछ दिन पहले गाँव जाना हुआ, घर के पास एक "दलित बस्ती" है, जिसमें "हनुमान जी" का एक मंदिर बना हुआ है। बस्ती में मीटिंग हुयी कि हनुमान जयंती के दिन मंदिर पर पाठ, हवन और भंडारा करवाया जाए। बस्ती के लोगों ने आपसी सहयोग से सब इंतजाम कर लिया, बस एक कमी रह गयी थी कि पाठ व हवन करवाने के लिए एक पंडिज्जी की जरुरत थी। बस्ती के कुछ लोग इकठ्ठा होकर पहुंचे गाँव के मिशिर जी के यहां। मिशिर जी, ने फरियाद सुनी और व्यस्तता का कारण बताकर आने में असमर्थता जताई। लोग दूसरे पंडिज्जी के पास पहुंचे, उन्होंने भी वही कारण बताकर लोगों को टरका दिया। लोग तीसरे फिर चौथे पंडिज्जी के पास पहुंचे, सबने कुछ न कुछ कारण बताकर पाठ व हवन करने से मना कर दिया।

शाम को हमारे अनुरोध पर मिशिर जी, के घर के बाहर स्वघोषित सवर्णों की चौपाल लगी। मुद्दा जो उठाया गया वो था दलित बस्ती के, हनुमान मन्दिर पर होने वाले हवन व पाठ का। हम चाहते थे कि गाँव के ही कोई पंडिज्जी ही दलित बस्ती के हनुमान मन्दिर में हवन व पाठ का कार्य संपन्न करवाये।
"कौन जाए दलितों की बस्ती में, राम राम राम", एक पंडिज्जी जी ने दोनों कानों पर उँगलियाँ लगाते हुए बोले।
"देखो भाई जाने में कोई बुराई नहीं, हवन पाठ कराना पडेगा तो, फिर जिमना भी पड़ेगा, दलितों के यहां खाना न भाई न, ये पाप न हो पायेगा हमसे", मिशिर जी बोले।
"लेकिन मिशिर जी भंडारे का भोज तो प्रसाद होता है जिसे हलवाई बनाएंगे, जब भगवान का भोग लग गया तो पवित्र हो गया फिर जाने में क्या दिक्कत", हमने याचना भरे स्वर में कहा।
एक पंडिज्जी गरमाये स्वर में बोले, "अरे दिक्कत कैसे नहीं है, अब हम इनके यहाँ खाये, ये दिन आ गए क्या अब हमारे, ऐसों का छुआ पाणी नहीं पीते हम जिमना तो दूर की बात है, कोई ब्राह्मण नहीं जाएगा इनकी बस्ती में"
सब पंडिज्जी लोगों ने इस बात पर सहमति से सर हिला कर एकता का परिचय दिया, चौपाल खत्म हो गयी।

हम उठकर घर की ओर चल दिये, घर न जाकर सीधा "दलित बस्ती" में पहुंचे, वहां भी चौपाल जमी थी। राम~राम श्याम~श्याम के बाद हमने बस्ती के मुखिया से पूछा "क्या दद्दा किसी पंडिज्जी की व्यवस्था हुयी"। मुखिया परेशान होकर बोले, "न हुई, आस-पास के गाँवों के पंडिज्जीयों से भी बात किये पर बात न बनी, हम ठहरे दलित मालिक साब, हमरे यहां कौन आएगा पाठ करवाने के लिए। अब कार्यक्रम की तैयारी रद्द करवानी पड़ेंगी"। बड़ा गुस्सा आ रहा था हमें इन पंडिज्जीयों पर, लेकिन गुस्से से समस्या का हल नहीं निकलेगा। ठन्डे दिमाग से विचार किया, कुछ देर बाद हमने मुखिया और बस्ती के लोगों को कहा "कार्यक्रम की तैयारी नहीं रुकनी चाहिए, कल हवन पाठ होगा हर हाल में होगा, सुबह आपकी बस्ती में एक पंड़ित होगा हवन पाठ करवाने को, तैयारी जारी रखो, ये हमरा वचन है आप लोगों से"।

घर आकर फोन चार्जिंग से निकाला। एक मित्र का नंबर लगाया , "हेल्लो भारद्वाज... हां... हम बोल रहे हैं बे, हाँ यार गाँव से ही बोल रहे हैं, सुन एक काम है तुमसे, कल तड़के सुबह तुमको हमरे गाँव आना है, एक हवन और पाठ करवाना है।" एक साँस में हमने उसे पूरी समस्या कह डाली।
उसने पूछा "दलित बस्ती में?"
"हां यार दलित बस्ती में, सारे पंडिज्जीयों ने तो मना कर दिया, तू बता क्या बोलता है"।
"दलित बस्ती में है तो क्या हुआ आ जाऊंगा यार"।
"देख ले खाना पडेगा"।
"भगवान का प्रसाद है ख़ुशी खुशी खा लेंगे"।
"ठीक है तो आजा तड़के, तू हिंदूवादी है इसलिए तुझे बड़ी उम्मीद से फोन किया है, देख रह मत जइयो, तेरे दोस्त की नाक का सवाल है"।
"अबे चिंता न कर यार पौ फटते ही तेरे दरवाजे पर दिखूंगा"।

अपने वायदे के मुताबिक सुबह की लालिमा में भारद्वाज, धोती-कुरता पहने मोटरसाइकिल पर सवार घर के दरवाजे पर खड़ा था। हम भी नहा धो कर तैयार ही खड़े थे। उसे लेकर फटाफट से दलित बस्ती के हनुमान मन्दिर पहुँच गये। पंडिज्जी देखकर लोगों का उत्साह दूना हो गया। बुझे बुझे से चेहरे अब खिलने लगे और लोग दुगनी रफ़्तार से भंडारे के काम में जुट गए। भारद्वाज ने गद्दी संभाल ली, पूजा हवन की सामग्री जमा ली। कुछ देर बाद बस्ती के सेकड़ों लोग सुन्दरकाण्ड का पाठ बड़े चाव से सुन रहे थे।

उसके बाद हवन हुआ, लोगों ने बढ़ चढ़ कर अग्नि में होम किया। बारह बजते बजते भंडारे का समय हो गया। धर्मानुसार, पहले हनुमानजी को भोग लगाया गया। उसके बाद "भारद्वाज" को भोजन कराया गया। भारद्वाज ने भी छक कर भोजन किया। दक्षिणा के 501 रुपयों में भारद्वाज ने सिर्फ 1 रुपया ग्रहण कर प्रेम से 500 रूपये मन्दिर कमेटी को ही लौटा दिए। यहां तक की मोटरसाइकिल के पेट्रोल के लिए अतिरिक्त पैसा भी स्वीकार नहीं किया और ख़ुशी खुशी शहर को रवाना हो गया। सेकड़ों लोग भारद्वाज को गाँव के बाहर तक छोड़ने गये और जय श्री राम व हनुमान जी की जयजयकार के साथ भारद्वाज को विदा किया गया।

मोरल ऑफ़ द ट्रू स्टोरी ~ आखिर कोई अपना धर्म क्यों बदलता है? धर्म से उपेक्षित होने की वजह से simple है ना?

जिनका धर्म से कोई जुड़ाव ही नहीं हो उनको कोई भी आसानी से निशाना बना सकता है। जो धर्म, से गहरे तक जुड़े हैं, उनका धर्म परिवर्तन करवाने का माद्दा किसी में नहीं.  चाहे कोई जितना जोर लगा ले लेकिन जो उपेक्षित हैं, हाशिये पर धकेल दिए गए हैं ईसाई मिशनरी और मुस्लिम धर्म प्रचारक ऐसे ही उपेक्षित व धकेले गए लोगों को आसानी से अपना शिकार बना लेते है।

पहले धार्मिक रूप, से इन्हें सशक्त बनाने कोई आगे नहीं आएगा, इन पर कोई ध्यान नहीं रखेगा पर जब यही धार्मिक रूप से पिछड़े, उपेक्षित और अपमानित हिन्दू, धर्म बदलकर ईसाई या मुसलमान बनेंगे तो हिंदूवादी संगठन बुरी तरह से हाय-तौबा मचाएंगे।

जब यही लोग, आरिफ या जोनी बनकर हमारे यहां आएंगे जाएंगे तब हमें कोई दिक्कत नहीं। इन्हें आने वाले समय में आरिफ भाई, जोनी "ब्रो" कहकर होली, दिवाली, गले लगाएंगे पर आज इनसे दूर भागेंगे। फिर यही "आरिफ" और "जॉनी" जब तादात में होंगे, तो हिंदुओं का बैंड बजायेंगे।

याद रखिये, पेड़ आसानी से वही उखड़ते हैं जिनकी जड़ें गहरी नहीं होती और जिनकी जड़ें गहरी होती हैं, उन पेड़ों को आसानी से कोई उखाड़ भी नहीं पाता।

आज हमारी उपेक्षा से ये हालात पैदा हो गए हैं कि देश से पहले धर्म बचाना जरुरी बन पड़ा है। अगर हिन्दू घटा तो इस देश को मुगलिस्तान बनने से कोई नहीं रोक पायेगा। दुनिया में "हिंदुओं" का सिर्फ यही तो एकमात्र देश है। यहां भी सिमटकर रह गए तो ऐसे में सिर्फ दो रास्ते होंगे आपके सामने:

या तो आपको "अल्पसंख्यक" होकर पाकिस्तान जैसे हालातों का सामना करना पडेगा, या हिन्द महासागर में डूब कर जल समाधी लेनी पड़ेगी।

अपनी जड़ें गहरी कीजिये, ये दलित और पिछड़े हिन्दू आपकी जड़ें हैं, ये जितनी गहरी होंगी आप उतनी ही मजबूती से खड़े मिलोगे।
और जड़ें गहरी नहीं हुयी तो ये "जिहादीज" और "मिशनरीज" आपको उखाड़ के दम लेंगे।

साभार:
https://m.facebook.com/812686542220444/photos/a.812688608886904.1073741828.812686542220444/817159208439844/?type=3

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