वर्ण-व्यवस्था की समीक्षा - उडीसा के शूद्र जो ब्राहमण बनाये गये
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उडीसा में चैतन्य महाप्रभु (1486-1534) ब्राह्मण संत हुये, जिन्होने अद्वैत ब्रह्म की प्रमाणहीन बौद्धिक कसरत के स्थान पर वैदिक भक्ति की स्थापना की, उनके भक्ति आंदोलन में समाज के हर वर्ग के लोग शामिल हुए, उन्होने उडीसा में शूद्र वर्ण के अंतर्गत आने वाले "रथ" एवं कुछ अन्य समुदाय को ब्राह्मण वर्ण में सम्मिलित करवाया, आज की स्थिति में "रथ" उडीसा के सम्मानित ब्राहमण माने जाते हैं, ज्योतिष एवं आर्युवेद की परंपरा को रथ समुदाय आगे बढा रहा है, आप फ़ेसबुक में "संजय रथ" नामक ज्योतिषी को आसानी से पा सकते हैं, जिसके अनेक ब्राहमण एवं गैर ब्राहमण शिष्य हैं
वैदिक वर्ण व्यवस्था मे जिस प्रकार का वर्ण विभाजन हुआ उसमें ऊंच एवं नीच का स्तर (hierarchy) नहीं था, इस भावना को राजनौतिक नेताओ एवं इस तरह के नेताओ द्वारा प्रोत्साहित इतिहासकारों ने कृत्रिम रूप से शिक्षित वर्ग में भरा है.
चारों वेदों में से किसी भी वेद में किसी भी शूद्र वर्ण को निम्न स्थान नहीं दिया गया है, इस वितंडावाद के उलट यजुर्वेद के मंत्रो मे शूद्र वर्ण सहित सभी वर्णों के कल्याण एवं तेजस्वी होने की कामना करने वाला मंत्र भी शामिल है -
!! रुचं नो धेहि ब्राहमणेषु, रुचं राजसु नस्कृधि
रुचं विश्येषु शूद्रेषु, मयि धेहि रुचा रुचम् !! ( शुक्ल यजुर्वेद, १८.४८)
हो सकता है गांधी इस मंत्र को न जानते रहे हों किंतु अंबेडकर, नेहरू एवं विनोबा भावे तथा आजकल की रोमिला थापर तो जानते रहें होंगे क्योंकि उन्होने अपने विचारों के अनुसार इतिहास लिखा है. जाति की जटिलता शूद्र वर्ण नहीं है, जाति की जटिलता उन वर्गो से उत्पन्न होती है जो भारतीय महाद्वीप में रहते हुये भी सनातन संस्कृति को स्वीकार नहीं कर पाये जैसे कि सुंवर पालन करने वाले वर्ग तथा सनातन संस्कृति के पूर्व से चली आ रही आदिम बर्बरता के साथ जीते रहे, इन अंत्यज लोगों को उन्नीसवी एवं बीसवीं शती में शूद्र समझ लिया गया जो कि इतिहास के साथ किया गया घृणित खिलवाड था, इससे यह हुआ कि इस अंत्यज वर्ग की पहचान एवं उनका अपना इतिहास भी मिट गया एवं वे सब कृत्रिम रूप से शूद्र वर्ण में समाहित मान लिये गये.
इन सब जटिलताओ की गंभीरता को जानते हुये सप्तर्षि में हमेशा जाति पर आधारित चर्चाओ को दबाया गया है क्योंकि जो अपने को सुधारवादी होने का दावा करते हैं वे जाति की ऎतिहासिक जटिलताओ को जानते ही नहीं हैं
चैतन्य महाप्रभु के पहले आदि चाणक्य ने चंद्रगुप्त मौर्य को उठाया एवं उनके बाद आदि जगत गुरु शंकराचार्य एवं उनके बाद वैष्णव गुरु रामानुजन एवं रामानंद आदि सभी ने , एवं फ़िर कबीर से रैदास तक सबको गुरु के स्तर पर ला कर खडा कर दिया था किंतु यह सारे उदाहरण तथाकथित सुधारवादियों के वर्णन में सामिल नहीं होते हैं
जाति कैसे एवं कब शुरू हुई -
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सनातन धर्म के मूल ग्रंथों के स्थान पर पांचवी एवं छठी शती में बौद्ध धर्न ने जाति की भावना को उकसा कर अपना प्रचार किया, बुद्ध ने जाति को एक अस्त्र की तरह प्रयुक्त किया, यहां तक कि संन्यास लेने के बाद भी अपनी जाति के शाक्यों को अपने प्रवचनों मे सबसे अधिक सम्मान दिया, जिसकी प्रतिक्रिया में सनातन धर्म के तत्कालीन साहित्य में जातिगत विभाजन कठोर हुआ किंतु जाति व्यवस्था से ऊपर उठने के रास्ते बंद नहीं हुये वानप्रस्थ एवं संन्यास इन दो आश्रमों को जाति से ऊपर रखा गया, अर्थात ५० वर्ष की अवस्था के ऊपर जाति व्यवस्था शिथिल हो जाती हैं
भारत का इतिहास साक्षी है कि मानवता, करूणा एवं भक्ति के द्वारा जातिगत द्वेष कभी नहीं बढा, आज समाज में जातिगत संघर्ष दिखता है उसके पीचॆ आर्थिक अराजकता एवं दबंगई स्थापित करने की कोशिश सबसे प्रमुख होती है न कि धर्म एवं संस्कृति की शास्त्रीय व्यवस्था को कोई पुरोहित निर्धारित करता है.
समाधान
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अनियंत्रित एवं जटिल जातिगत व्यवस्था का समाधान सनातन वैदिक धर्म के मूल सिद्धांत में निहित है, प्रथम चरण में सबके भीतर मूल भावना कि वैदिक वर्ण व्यवस्था में सबको सम्मान है, उसे स्थापित किया जाय ताकि मन से ब्राहमणों के प्रति व्याप्त घृणा भी समाप्त हो, ब्राहमणों के बलिदान से ही भारत बच सका है, इसे स्वीकार करना पडेगा, ब्राहमण समाप्त तो सनातन हिंदुत्व अपने आप समाप्त हो जायेगा
अगला कदम जातियों को वर्ण में मिलाकर हजारों जातियो कि केवल चार वर्णों मे सीमित किया जाये एवं इसके साथ ही संविधान में प्रस्तावित जातिगत आरक्षण को आर्थिक आरक्षण में तुरंत बदल दिया जाये, जिससे असमानता की भावना व्याप्त हो, जातिगत आरक्षण चलते हुए जातिविहीन समाज की स्थापना संभव नहीं है
Courtesy: Lalit Mishra
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