संयुक्त हिन्दू परिवारों का विघटन!!!
सामाजिक व्यवस्थाएं बड़ी तेजी से बदल रही हैं। संयुक्त हिन्दू परिवारों का अस्तित्व समाप्त होता जा रहा है। व्यक्तिगत स्वार्थ और व्यक्तिगत इच्छाएं इतनी हावी हो गई हैं...
सामाजिक व्यवस्थाएं बड़ी तेजी से बदल रही हैं। संयुक्त हिन्दू परिवारों का अस्तित्व समाप्त होता जा रहा है। व्यक्तिगत स्वार्थ और व्यक्तिगत इच्छाएं इतनी हावी हो गई हैं कि हमें आसपास का कुछ भी नहीं दिखाई देता। केवल पति-पत्नी और दो बच्चे ही परिवार की परिभाषा बन गए हैं। माता-पिता, भाई-बहन इन सबका सरोकार नहीं रहा। छोटे-छोटे परिवार और उसी हिसाब से छोटे-छोटे फ्लैट या छोटे-छोटे मकान अस्तित्व में आ रहे हैं। पुत्र-पुत्रवधु, माता-पिता के पास एक मेहमान की तरह आते हैं और विदा हो जाते हैं। कोई भी साथ-साथ रहना नहीं चाहता। माता-पिता, भाई-बहन किसी की भी जिम्मेदारी कोई भी व्यक्ति उठाने को तैयार नहीं है। सब 'इकला चलो रे' के सिद्धांत पर दौड़ रहे हैं। इसीलिए समाज में विसंगतियां उत्पन हो रही हैं। बलात्कार बढ़ रहे हैं, हत्याएं बढ़ रही हैं और दुर्घटनाएं बढ़ रही हैं। पहले भरा-पूरा परिवार होता था तो उसके अंदर जाकर दुर्घटना करने का किसी को साहस नहीं होता था। अब मां-बाप के अकेलेपन का फायदा उठाकर घर में प्रवेश पा जाता है। घर में प्रवेश पाने के कई तरीके हैं। बिजली ठीक करने वाला बनकर या मीटर रीडिंग करने वाला बनकर अथवा नल का पाइप चेक करने के बहाने या टेलीफोन की जांच करने के बहाने किसी भी बहाने से अथवा सहनुभूति के माध्यम से व्यक्ति घर में प्रवेश करता है, वृद्ध दम्पति की हत्या करता है, लूटपाट करता है और भाग जाता है। पहले ऐसा सम्भव नहीं था।
बीमारी में अकेले मां-बाप जो वृद्ध हो चुके हैं उनका इलाज भी नहीं हो पाता क्योंकि दवा कौन लेकर आए, डॉक्टर के यहां कौन दिखाने ले जाए, दोनों वृद्ध हो चुके हैं, चलने-फिरने में असमर्थ और अगर पेंशन नहीं मिलती है तो आर्थिक विपन्नता भी है। यही स्थिति अकेले रहते पति-पत्नी की होती है। वही समस्याएं जो अकेले मां-बाप के साथ हैं, वही अकेले पति-पत्नि के साथ भी है, पति बीमार है तो पत्नी को ही भाग-दौड़ करनी पड़ती है तथा दवा-दारू और डॉक्टर के यहां जाना यह सभी कुछ अकेले पत्नी को करना पड़ता है और ऐसे में अकेली पत्नी के साथ सहानुभूति दिखने वालों की भीड़ लग जाती है, और यह सहानुभूति दिखाने वाले ऊंगली पकड़कर पोचा पकड़ने का प्रयास करते हैं। यह पता चलने के बाद कि पति व्यवसाय के लिए दुकान पर जाते हैं अथवा दिन भर नौकरी पर बाहर रहते हैं, जो पति की बीमारी में पत्नी के साथ सहानुभूति प्रदर्शित करते रहे हैं। जो लोग पति के पीछे घर आकर पत्नी से बतियाते हैं वो कभी-कभी ऐसी परिस्थतियां उत्पन्न कर देते हैं, ऐसे व्यक्ति पुत्र की अनुपस्थिति में आता है तब पुत्र की माता तथा पुत्रवधू की सास उसका ध्यान रखती थी और कभी-कभी जाकर पास बैठ जाती थी, इससे आने वाला हतोत्साहित भी होता था और डरता भी था। कभी-कभी पत्नियां भी चंचल हो जाती हैं और पति काम पर गया हुआ है तो पत्नी की चंचलता बढ़ जाती है, जिसकी कीमत उन्हें कभी-कभी बलात्कार का अथवा व्यभिचार का शिकार होकर चुकानी पड़ती है।
संयुक्त हिन्दू परिवार का समाज में एक मान होता था, एक सम्मान होता था, एक डर होता था, जिसकी वजह से कोई भी व्यक्ति ऐसे परिवार के सदस्यों से उलझने में डरता था, जो इकट्ठे रहते हैं। क्योंकि उसे एक सामूहिक व्यक्तियों का सामना करने का डर रहता था। अकेले व्यक्ति को कोई भी डरा लेता है, कोई भी दाब लेता है अथवा पीट लेता है किंतु संयुक्त परिवार में रहने वाले व्यक्ति पर हाथ डालना सम्भव नहीं होता। आर्थिक विपन्नता के समय में भी संयुक्त हिन्दू परिवार की शाख काम आती है। अकेले व्यक्ति को कोई आर्थिक रूप से उतनी सहायता देना पंसद नहीं करता, जितनी सहायता संयुक्त हिन्दू परिवार के सदस्य के रूप में लिया गया ऋण लेने की नौबत भी नहीं आती। भाई-भाई की सहायता करता है, पिता-पुत्र की सहायता करता है और सारा परिवार भयंकर आर्थिक विपन्नता को दूर करने का प्रयास करता है। जिस प्रकार किसी देश के पास जितना सोना होता है, उतना ही उसे विदेशों से ऋण आसानी से मिल जाता है। इस प्रकार जिस संयुक्त परिवार की जितनी अधिक शाखा होती है, समाज उसको उतनी ही मान्यता देता है और यह तो पूरी तरह से स्पष्ट है कि अकेले व्यक्ति के मुकाबले संयुक्त हिन्दू परिवार की शाख अधिक होती है।
संयुक्त हिन्दू परिवार में बच्चों पर भी पूर्ण नियंत्रण रहता है। अक्सर देखा गया है अकेले पति-पत्नी के बच्चे अनियंत्रित हो जाते हैं। क्योंकि उनकी देखभाल इतनी सुनिश्चित नहीं होती, जितनी संयुक्त परिवार में होती है, अकेले माता-पिता बच्चों पर हर समय निगाह नहीं रख सकते और संयुक्त परिवार में चाचा, ताऊ, बुआ, फूफा, दादी, बाबा सभी की नजर बच्चों पर पड़ती है, नियंत्रण के साथ-साथ बच्चों को संयुक्त हिन्दू परिवार के सदस्याें के अनुभव का लाभ मिलता है। देखा गया है कि संयुक्त हिन्दू परिवार में रहने वाले बच्चे झगड़ालू नहीं होते। जबकि अकेले माता-पिता के पास रहने वाले पुत्र-पुत्री अक्सर नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं। क्योंकि उनकी गतिविधियों पर ध्यान रखने के लिए केवल माता-पिता की चार आंखें होती हैं, जबकि संयुक्त हिन्दू परिवार में उनको देखने के लिए दस-बीस आंखें उपलब्ध रहती हैं, जो कभी भी कहीं भी उन पर पड़ सकती हैं। यही स्थिति संयुक्त परिवार की कन्याओं की, संयुक्त परिवार में रहने वाली कुलवधूओं की भी होती है, वह भी अपने परिवार की प्रतिष्ठा के अनुरूप ही चलती हैं, क्योंकि उन्हें डर रहता है कि कोई उनकी गतिविधियों को अवश्य देख रहा होगा। वर्तमान में बच्चों का उच्छृंखल हो जाना, मंदिर के स्थान पर मदिरालय में जाना। संयुक्त हिन्दू परिवार के विघटन का ही परिणाम है।
सामाजिक उत्सवों में, त्यौहारों में संयुक्त हिन्दू परिवार होने पर परिवार की भागीदारी आसानी से हो जाती है। क्योंकि यदि परिवार में दस सदस्य हैं तो चार किसी परिजन-पुरजन के समारोह में सम्मिलित हो सकते हैं और शेष घर पर रह सकते हैं तो घर भी सुरक्षित रहता है और उत्सव में भागीदारी भी हो जाती है, जहां पर केवल पति-पत्नी ही मकान में रहते हैं। वहां सामाजिक उत्सवों में जाने में हमेशा डर बना रहता है और कभी-कभी सदस्याविहीन मकान में चोर आसानी से अपना कार्य पूरा कर लेते हैं।
संयुक्त हिन्दू परिवार में सभी का सुख-दुख साझा होता है, एक दुखी होता है तो दूसरा सांत्वना दे सकता है और यदि कोई खुशी होती है तो उसे सब मिलकर मनाते हैं, किसी भी प्रकार का अकेलापन अहसास नहीं हाता। होली-दीवाली सभी त्यौहार बड़े उल्लास से मनाये जाते हैं, घर के सभी सदस्य एक-दूसरे के साथ खुशी मनाते हैं। मिठाई खाने और खिलाने का आनन्द लेते हैं। होली में एक-दूसरे को रंग लगाते हैं, दशहरे में एक-दूसरे से गले मिलते हैं, दीवाली में पूरे मकान में रोशनी करते हैं। जबकि अकेले पति-पत्नी या उनके अकेले मां-बाप न वो खुशी मना सकते हैं और न ही वो उल्लास होता है, यदि त्यौहार पर एकत्रित भी होते हैं, तो एक प्रकार से अतिथि के रूप में एकत्रित होते हैं और अलग-अलग होने पर फिर वही घुटन और चुभन मन में व्याप्त रहती है, जो मिलने से पूर्व थी।
संयुक्त हिन्दू परिवार में आर्थिक, सामाजिक, व्यवसायिक, व्यक्तिगत सभी प्रकार की सुरक्षा रहती है। बच्चों की पढ़ाई पर प्रत्येक सदस्य ध्यान दे सकता है। एक भाई के व्यवसाय पर दूसरा भाई सहायता कर सकता है और भाई-भाई मिलकर व्यवसाय करते हैं तो बाहर के व्यक्ति पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। आर्थिक रूप से एक-दूसरे की सहायता कर सकते हैं, सामाजिक रूप से साथ-साथ जाने में एक प्रतिष्ठा होती है और वैसे भी समाज में एक समूह का मान होता है। आजकल प्रजातंत्र के युग में दल-बल को मुख्य माना जाता है। राजनीति में भी उस व्यक्ति की पूछ होती है, जिसके कई वोट होते हैं। अकेले व्यक्ति की वो पूछ नहीं होती। घर की रसोई में भी संयुक्त हिन्दू परिवार में भांति-भांति के व्यंजन बनते रहते हैं, सबकी रुचियों का ध्यान रखा जाता है, वेश-भूषा, भोजन आदि में संयुक्त हिन्दू परिवार की झलक अलग से दिखाई पड़ती है। व्यवसाय में वह परिवार बहुत तरक्की करते हैं और भविष्य में तरक्की की भी है, जो मिलकर चलते हैं, जो अकेले-अकेले चलते हैं, वह व्यवसाय में भी तरक्की नहीं कर पाते और समाज में भी उनका सम्मान वह नहीं होता। अकेला व्यक्ति जब घर से बाहर जाता है तो उसे घर की चिंता रहती है, कभी-कभी यह चिंता संदेह में बदल जाती है, जो पति-पत्नी के बीच विघटन का कारण बनती है, जिसे बच्चों को भुगतना पड़ता है। संयुक्त हिन्दू परिवार में यदि पति-पत्नि के बीच विघटन का कारण बनती है, जिसे बच्चों को भुगतना पड़ता है। संयुक्त हिन्दू परिवार में यदि पति-पत्नी में कोई मनमुटाव होता भी है तो उसको बड़े-बूढ़े समझा-बूझाकर निपटा देते हैं, परंतु अकेले परिवार में यह सम्भव नहीं होता। मैं एक ऐसे परिवार को जानता हूं, जिसमें लगभग चालीस व्यक्ति संयुक्त हिन्दू परिवार के रूप में एक साथ रहते हैं और सबका भोजन इकट्ठा बनता है और सब शाम को इकट्ठा भोजन करते हैं, कोई यह नहीं कहता कि मैं यह सब्जी नहीं खाऊंगा या रोटी नहीं खाऊंगा। जो बनता है, सभी चाव से खाते हैं। आज स्थिति यह है कि उनके पिताश्री का केवल एक व्यवसाय था आज उस संयुक्त हिन्दू परिवार की पिताश्री के व्यवसाय के अतिरिक्त तीन प्रकार के विशाल प्रतिष्ठान स्थापित हैं और घर के सभी बच्चे उनमें कार्यरत हैं। बच्चे भी नियंत्रण में हैं, बड़े भी संयत और नियमित हैं तथा सभी सुरक्षित हैं और सभी की देखभाल भी आपस में मिलजुल कर होती है। अकेले पति-पत्नी के परिवार में यह सम्भव नहीं है।
Courtesy: Awakening page, https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=458086451195773&id=292543404416746
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