Monday, 15 May 2017

कहां-कहां मोर्चा खोल रखा है आतंकवादियों ने?

दुनियाभर में यदि कहीं पर भी आतंकवाद है तो उसके पीछे इस्लाम की सुन्नी विचारधारा के अंतर्गत वहाबी और सलाफी विचारधारा को दोषी माना जाता है। इनका मकसद है जिहाद के द्वारा धरती को इस्लामिक बनाना। आतंकवाद अब किसी एक देश या प्रांत की बात नहीं रह गया है। यह अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गठजोड़ कर चुका है और इसके समर्थन में कई मुस्लिम राष्ट्र और वामपंथी ताकतें हैं। सऊदी, सीरिया, इराक, अफगानिस्तान, कुर्दिस्तान, सूडान, यमन, लेबनान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, इंडोनेशिया और तुर्की जैसे इस्लामिक मुल्क इनकी पहानगाह हैं। इस्लामिक आतंकवाद की समस्या व उसकी जड़ के असली पोषक तत्व सिर्फ सऊदी अरब, चीन, ईरान ही नहीं हैं। इनके समर्थक गैर-मुस्लिम मुल्कों में वामपंथ, समाजसेवी और धर्मनिरपेक्षता की खोल में भी छुपे हुए हैं। इनके कई छद्म संगठन भी हैं, जो इस्लामिक शिक्षा और प्रचार-प्रसार के नाम की आड़ में कार्यरत हैं। अल कायदा, आईएस, तालिबान, बोको हराम, हिज्बुल्ला, हमास, लश्कर-ए-तोइबा, जमात-उद-दावा, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान, जैश-ए-मुहम्मद, हरकत उल मुजाहिदीन, हरकत उल अंसार, हरकत उल जेहाद-ए-इस्लामी, अल शबाब, हिजबुल मुजाहिदीन, अल उमर मुजाहिदीन, जम्मू-कश्मीर इस्लामिक फ्रंट, स्टूडेंटस इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी), दीनदार अंजुमन, अल बदर, जमात उल मुजाहिदीन, दुख्तरान-ए-मिल्लत और इंडियन मुजाहिदीन जहां इस्लाम की एक विशेष विचारधारा से संबंध रखते हैं वहीं इस्लामिक मुल्कों को छोड़कर हर देश में कम्युनिस्ट या साम्यवादी विचारधारा की आड़ में भी ये संगठन पल और बढ़ रहे हैं।

एक और जहां मुस्लिम मुल्कों में हिन्दू, ईसाई, बौद्ध आदि अल्पसंख्यकों पर हमले करके उन्हें वहां से खदेड़ा जा रहा है वहीं दूसरी और गैर-मुस्लिम मुल्कों के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में दहशत और आतंक का माहौल बनाकर वहां से भी गैर-मुस्लिमों, ईसाइयों, बौद्धों, शियाओं, अहमदियों आदि को खदेड़े जाने की साजिश पिछले कई वर्षों से जारी है। इस साजिश में वामपंथ ने लगभग सभी आतंकवादी गुटों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन दे रखा। इस बात के कई सबूत पेश किए जा सकते हैं। भारत की बात करें तो पूर्वोत्तर, झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में ऐसे कई ग्रुप सक्रिय हैं जिन्हें नक्सलवादी, माओवादी या लेनिन-मार्क्सवादी लिबरेशन फ्रंट कहा जाता है। आओ जानते हैं कि दुनिया में कहां-कहां आतंकवादियों ने मोर्चा खोल रखा है...

फिलिस्तीन : इसराइल और फिलिस्तीन के बीच सदियों से गाजा और यरुशलम पर कब्जे को लेकर लड़ाई जारी है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इसराइल से खदेड़े गए यहूदियों को पुन: इसराइल में बसाया गया और यह मुल्क उनके सुपुर्द कर दिया गया। इसके बाद आज तक यहूदियों की इस्लाम से जंग जारी है। 1948 में जब विभाजन हुआ तब इसराइल और फिलिस्तीन दो देश बने थे। गाजापट्टी, जो इजिप्ट के कब्जे में था और वेस्ट बैंक ये दोनों अलग-अलग हिस्से हैं, फिलिस्तीन का तब से ही संघर्ष चल रहा है। यहूदी पश्चिम एशिया के उस इलाके में अपना हक जताते थे, जहां सदियों पहले यहूदी धर्म का जन्म हुआ था और जहां वे संख्या में बहुल थे। यही वो जमीन थी, जहां ईसाइयत का जन्म हुआ। इस्लाम का उदय होने के बाद इस क्षेत्र पर उनका कब्जा हो गया। आज जिसे गाजा कहते हैं, यहूदियों के दावे वाले इसी इलाके में मध्यकाल में अरब फिलिस्तीनियों की आबादी बस चुकी थी। इस गाजा पट्टी पर अपने अधिकार को लेकर जंग के लिए हमास नामक आतंकवादी संगठन का उदय हुआ। 'हमास' का मतलब है 'हरकत उल मुकवामा अल इस्लामियास।' यह फिलिस्तीन का सामाजिक-राजनीतिक आतंकवादी संगठन है, जो मुस्लिम ब्रदरहुड की एक शाखा के रूप में 1987 में स्थापित किया गया था। इस संगठन का जिहाद इसराइल के खिलाफ है और इसका मकसद इसराइल से फिलिस्तीन की आजादी को सुरक्षित रखना है। इसे आत्मघाती हमलों के लिए जाना जाता है। इस आतंकवादी संगठन को इसराइली सरकार और नागरिकों के खिलाफ अपने अभियान में हिजबुल्लाह का समर्थन भी हासिल है। हिजबुल्लाह ईरान और सीरिया समर्थित लेबनानी आतंकवादी संगठन है, जो 1982 के लेबनानी गृहयुद्ध से उभरा था। हालांकि इस संगठन को इसराइल और सुन्नी अरब देशों का सबसे बड़ा दुश्मन माना जाता है। कहते हैं कि इस संगठन को लेबनान की 41 फीसदी जनसंख्या का समर्थन हासिल है।

चेचन्या : चेचन्या रूस के दक्षिणी हिस्से में स्थित गणराज्य है, जो मुख्यत: मुस्लिम बहुल क्षेत्र है। स्थानीय अलगाववादियों और रूसी सैनिकों के बीच बरसों से जारी लड़ाई ने चेचन्या को बर्बाद कर दिया है। चेचन्या पिछले लगभग 200 सालों से रूस के लिए मुसीबत बना हुआ है। रूस ने लंबे और रक्तरंजित अभियान के बाद 1858 में चेचन्या में इमाम शमील के विद्रोह को कुचला था लेकिन इसका असर ज्यादा समय तक नहीं रहा। लगभग 60 साल बाद जब रूस में क्रांति हुई तो चेचन फिर रूस से अलग हो गए। यह आजादी कुछ ही समय तक बनी रही और 1922 में रूस ने फिर चेचन्या पर अधिकार कर लिया। दूसरे महायुद्ध के वक्त चेचन फिर रूस से अलग हो गए। लड़ाई थमते ही रूसी नेता स्टालिन ने चेचन अलगाववादियों पर दुश्मनों से सहयोग का आरोप लगाकर उन्हें साइबेरिया और मध्य एशियाई क्षेत्रों में निर्वासित कर दिया। 1957 मे ख्रुश्चेव जब सत्ता में आए तो चेचन अलगाववादी वापस आ पाए। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद चेचन्या के लोगों ने फिर से विद्रोह कर दिया। 1994 में रूस ने वहां सेना भेजी, मगर चेचन लोगों ने जोरदार विरोध किया जिसमें दोनों तरफ के लोग भारी संख्या में मारे गए। अगस्त 1999 में चेचन विद्रोही पड़ोसी रूसी गणराज्य दागेस्तान चले गए और वहां एक मुस्लिम गुट के अलग राष्ट्र की घोषणा का समर्थन कर दिया, जो कि चेचन्या और दागेस्तान के कुछ क्षेत्रों को मिलाकर बनाया जा रहा था, लेकिन तब तक रूस में व्लादीमिर पुतिन प्रधानमंत्री बन चुके थे और उनकी सरकार ने सख्ती दिखानी शुरू कर दी। इसके तहत चेचन्या के लिए नए संविधान को मंजूरी दी गई और चेचन्या को और स्वायत्तता दी गई। मगर ये स्पष्ट कर दिया गया कि चेचन्या रूस का हिस्सा है, लेकिन चेचन्या के विद्रोही या आतंकवादी कहां मानने वाले थे इसलिए लड़ाई अभी जारी है और इस लड़ाई का कोई अंत नहीं। इससे चेचन्या के लोगों का ही नुकसान होता जाएगा। लंदन के एक दिवसीय प्रवास के दौरान पुतिन ने स्पष्ट कर दिया कि पश्चिम को चेचन्या के मामले में हस्तक्षेप की अपेक्षा इस बात पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि यदि इस्लामी अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद को रोका नहीं गया तो इसके गंभीर परिणाम होंगे। उन्होंने कहा कि यूरोपीय देशों को चाहिए कि वे चेचन्या में इसका सामना करने के लिए मॉस्को का साथ दें। लेकिन लगता है कि वे अपनी मुस्लिम अल्पसंख्यक आबादी को नाराज नहीं करना चाहते। उन्होंने बल देकर यह भी स्पष्ट किया कि रूस को यद्यपि यह स्वीकार नहीं होगा कि उसके एक क्षेत्र से उसकी संप्रभुता को चुनौती देने वाले स्वर उभरें। रूस का लक्ष्य चेचन्या को गुलामी की जंजीरों में जकड़ना नहीं है, बल्कि इसके लोगों को इस्लामी चरमपंथियों और आतंकवादियों से मुक्त कराना है।

शिनजियांग : चीन का प्रांत शिनजियांग एक मुस्लिम बहुल प्रांत है। जबसे यह मुस्लिम बहुल हुआ है तभी से वहां के बौद्धों, तिब्बतियों आदि अल्पसंख्यकों का जीना मुश्किल हो गया है। अब यहां छोटे-छोटे गुटों में आतंकवाद पनप चुका है, जो चीन से आजादी की मांग करते हैं। हालांकि हर वो चीज जिससे देश को खतरा महसूस हो, चीन उसे रोकने में देर नहीं लगाता, फिर चाहे उस पर दुनिया में कितना ही बवाल मचे या उसका विरोध हो। चीन ने जिस सख्ती के साथ वहां आतंकवाद को कुचला है उसकी कोई निंदा नहीं करता है। हाल ही में हुए धर्म सम्मलेन में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना के जनरल सेक्रेटरी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपने देशवासियों को चेतावनी देते हुए कहा कि वे चीन की स्टेट पॉलिसी 'मार्क्सवादी नास्तिकता' का अनुसरण करें और इस्लामी विचारधारा का अनुसरण न करें। यह कितनी हास्यापद बाद है कि पाकिस्तान ने उस चीन से हाथ मिला रखा है, जो ईश्वर को नहीं मानता है। ऐसा उसने सिर्फ इसलिए कर रखा है ताकि वह भारत से कश्मीर मामले में मुकाबला कर सके। चीन के शिनजियांग प्रांत में रहने वाले उइगर समुदाय के लोग इस्लाम धर्म को मानते हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान उइगरों द्वारा चीनी सरकार का विरोध काफी बढ़ा है। शिनजियांग की सीमा पाकिस्तान से लगती है, जहां से कट्टरपंथी इस्लामी शिक्षाओं का प्रसार होता है। चीन पहले ही पाकिस्तान को शिनजियांग में इस्लामी शिक्षाओं प्रचार-प्रसार को रोकने की चेतावनी देता रहा है। शिनजियांग में उइगर मुस्लिमों की आबादी 1 करोड़ से ज्यादा है जिन्हें तुर्किस्तान का मूल निवासी माना जाता है। चीन ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट को आतंकवादी संगठन मानता है। उइगर मुस्लिम नेता डोल्कुन ईसा पर शिनजियांग में कट्टरवाद फैलाने के आरोप हैं। चीन के अनुसार यह नेता मुस्लिम बहुल जिनजियांग प्रांत में इस्लामिक आतंकवाद का समर्थक है। जर्मनी में रह रहे डोल्कुन ईसा को चीन एक आतंकी घोषित कर चुका है और उसकी मांग पर ईसा के खिलाफ रेड कॉर्नर नोटिस जारी है। सन् 1985-89 के बीच जिनजियांग यूनिवर्सिटी में छात्र नेता के रूप में डोल्कुन ने लोगों को भड़काने का कार्य शुरू किया था। 1997 में चीन की सख्ती के चलते वह यूरोप भाग गया और 2006 में उसे जर्मनी की नागरिकता मिल गई। वहां रहकर इसने चीन से बाहर रह रहे उइगर मुस्लिमों के ग्रुप wuc को ज्वॉइन किया और उसका महासचिव बन गया।

कश्मीर का आतंक : कश्मीर के हालात पहले ऐसे नहीं थे। 1990 के पहले तक आम कश्मीरी खुद को भारतीय मानता था। हालांकि कश्मीर विभाजन की टीस तो सभी में थी लेकिन कट्टरता और अलगाववाद इस कदर नहीं था, जैसा कि आज देखने को मिलता है। इसके पीछे कारण है पाकिस्तान और भारतीय वामपंथ द्वारा कश्मीरियों को भड़काकर आजादी की मांग करवाना। 26 अक्टूबर को 1947 को जम्मू और कश्मीर के तत्कालीन शासक महाराजा हरिसिंह ने अपनी रियासत के भारत में विलय के लिए विलय-पत्र पर दस्तखत किए थे। गवर्नर जनरल माउंटबेटन ने 27 अक्टूबर को इसे मंजूरी दी। विलय-पत्र का खाका हूबहू वही था जिसका भारत में शामिल हुए अन्य सैकड़ों रजवाड़ों ने अपनी-अपनी रियासत को भारत में शामिल करने के लिए उपयोग किया था। न इसमें कोई शर्त शुमार थी और न ही रियासत के लिए विशेष दर्जे जैसी कोई मांग। इस वैधानिक दस्तावेज पर दस्तखत होते ही समूचा जम्मू और कश्मीर, जिसमें पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाला इलाका भी शामिल है, भारत का अभिन्न अंग बन गया था। भारत के इस उत्तरी राज्य के 3 क्षेत्र हैं- जम्मू, कश्मीर और लद्दाख। दुर्भाग्य से भारतीय राजनेताओं ने इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति समझे बगैर इसे एक राज्य घोषित कर दिया, क्योंकि ये तीनों ही क्षेत्र एक ही राजा के अधीन थे। सवाल यह उठता है कि आजादी के बाद से ही जम्मू और लद्दाख भारत के साथ खुश हैं, लेकिन कश्मीर खुश क्यों नहीं? क्योंकि कश्मीर एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र बन चुका था। हालांकि विशेषज्ञ कहते हैं कि पाकिस्तान की चाल में फिलहाल 2 फीसदी कश्मीरी ही आए हैं बाकी सभी भारत से प्रेम करते हैं। लंदन के रिसर्चरों द्वारा पिछले साल राज्य के 6 जिलों में कराए गए सर्वे के अनुसार एक व्यक्ति ने भी पाकिस्तान के साथ खड़ा होने की वकालत नहीं की, जबकि कश्मीर में कट्टरपंथी अलगाववादी समय-समय पर इसकी वकालत करते रहते हैं, जब तक कि उनको वहां से आर्थिक मदद मिलती रहती है। वहीं से हुक्म आता है बंद और पत्थरबाजी का और उस हुक्म की तामील की जाती है। भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हो चुका था जिसमें क्षेत्रों का निर्धारण भी हो चुका था फिर भी जिन्ना ने परिस्थिति का लाभ उठाते हुए 22 अक्टूबर 1947 को कबाइली लुटेरों के भेष में पाकिस्तानी सेना को कश्मीर में भेज दिया। वर्तमान के पाक अधिकृत कश्मीर में खून की नदियां बहा दी गईं। इस खूनी खेल को देखकर कश्मीर के शासक राजा हरिसिंह भयभीत होकर जम्मू लौट आए। वहां उन्होंने भारत से सैनिक सहायता की मांग की, लेकिन सहायता पहुंचने में बहुत देर हो चुकी थी। नेहरू की जिन्ना से दोस्ती थी। वे यह नहीं सोच सकते थे कि जिन्ना ऐसा कुछ कर बैठेंगे। लेकिन जिन्ना ने ऐसा कर दिया जिसे आज तक भुगतना पड़ रहा है। भारतीय सेना पाक अधिकृत कश्मीर को पुन: अपने कब्जे में लेने की लड़ाई लड़ ही रही थी कि 31 दिसंबर 1947 को नेहरूजी ने यूएनओ से अपील की कि वह पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी लुटेरों को भारत पर आक्रमण करने से रोके। फलस्वरूप 1 जनवरी 1949 को भारत-पाकिस्तान के मध्य युद्धविराम की घोषणा कराई गई। इस युद्धविराम का परिणाम यह हुआ कि आधा कश्मीर पाक के पास और आधा भारत के पास रह गया और बीच में एक नई रेखा नियंत्रण रेखा बन गई। नेहरूजी के यूएनओ में चले जाने के कारण युद्धविराम हो गया और भारतीय सेना के हाथ बंध गए जिससे पाकिस्तान द्वारा कब्जा किए गए शेष क्षेत्र को भारतीय सेना प्राप्त करने में फिर कभी सफल न हो सकी। आज कश्मीर में आधे क्षेत्र में नियंत्रण रेखा है तो कुछ क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय सीमा। अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगातार फायरिंग और घुसपैठ होती रहती है। इसके बाद पाकिस्तान ने अपने सैन्य बल से 1965 में कश्मीर पर कब्जा करने का प्रयास किया जिसके चलते उसे मुंह की खानी पड़ी। 1971 में उसने फिर से कश्मीर को कब्जाने का प्रयास किया। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसका डटकर मुकाबला किया और अंतत: पाकिस्तान की सेना के 1 लाख सैनिकों ने भारत की सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया और 'बांग्लादेश' नामक एक स्वतंत्र देश का जन्म हुआ। इंदिरा गांधी ने यहां एक बड़ी भूल की। यदि वे चाहतीं तो यहां कश्मीर की समस्या हमेशा-हमेशा के लिए सुलझ जाती, लेकिन वे जुल्फिकार अली भुट्टो के बहकावे में आ गईं और 1 लाख सैनिकों को छोड़ दिया गया। इस युद्ध के बाद पाकिस्तान को समझ में आ गई कि कश्मीर हथियाने के लिए आमने-सामने की लड़ाई में भारत को हरा पाना मुश्किल ही होगा। 1971 में शर्मनाक हार के बाद काबुल स्थित पाकिस्तान मिलिट्री अकादमी में सैनिकों को इस हार का बदला लेने की शपथ दिलाई गई। उन्होंने पहले पंजाब में आतंकवाद को फैलाया। भारत जब पंजाब में उलझा था तब तक पाकिस्तान ने कश्मीर में अलगाववाद को जन्म दे दिया। उसने पाक अधिकृत कश्मीर में लोगों को आतंक के लिए तैयार करना शुरू किया। तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल जिया-उल-हक ने 1988 में भारत के विरुद्ध 'ऑपरेशन टोपाक' नाम से 'वॉर विद लो इंटेंसिटी' की योजना बनाई। इस योजना के तहत भारतीय कश्मीर के लोगों के मन में अलगाववाद और भारत के प्रति नफरत के बीज बोने थे और फिर उन्हीं के हाथों में हथियार थमाने थे। अपने इस मकसद में वे कुछ हद तक सफल भी हुए। भारतीय राजनेताओं के इस ढुलमुल रवैये के चलते कश्मीर में 'ऑपरेशन टोपाक' बगैर किसी परेशानी के चलता रहा और भारतीय राजनेता शुतुरमुर्ग बनकर सत्ता का सुख लेते रहे। कश्मीर और पूर्वोत्तर को छोड़कर भारतीय राजनेता सब जगह ध्यान देते रहे। 'ऑपरेशन टोपाक' पहले से दूसरे और दूसरे से तीसरे चरण में पहुंच गया। अब उनका इरादा सिर्फ कश्मीर को ही अशांत रखना नहीं रहा, वे जम्मू और लद्दाख में भी सक्रिय होने लगे। पाकिस्तानी सेना और आईएसआई ने मिलकर कश्मीर में दंगे कराए और उसके बाद आतंकवाद का सिलसिला चल पड़ा। पहले चरण में मस्जिदों की तादाद बढ़ाना, दूसरे में कश्मीर से गैरमुस्लिमों और शियाओं को भगाना और तीसरे चरण में बगावत के लिए जनता को तैयार करना। अब इसका चौथा और अंतिम चरण चल रहा है। अब सरेआम पाकिस्तानी झंडे लहराए जाते हैं और सरेआम भारत की खिलाफत की जाती है, क्योंकि कश्मीर घाटी में अब गैरमुस्लिम नहीं बचे और न ही शियाओं का कोई वजूद है। पाक अधिकृत कश्मीर के नरसंहार के बाद भारत अधिकृत कश्मीर में रह रहे पंडितों के लिए कश्मीर में छद्म युद्ध की शुरुआत पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के काल में हुई। उसने षड्यंत्रपूर्वक कश्मीर में अलगाव और आतंक की आग फैलाई। उसके भड़काऊ भाषण की टेप को अलगाववादियों ने कश्मीर में बांटा। बेनजीर के जहरीले भाषण ने कश्मीर में हिन्दू और मुसलमानों की एकता तोड़ दी। अलगाववाद की चिंगारी भड़का दी और फिर एक सुबह पंडितों के लिए काल बनकर आई। 19 जनवरी 1990 को सुबह कश्मीर के प्रत्येक हिन्दू घर पर एक नोट चिपका हुआ मिला, जिस पर लिखा था- 'कश्मीर छोड़ के नहीं गए तो मारे जाओगे।' सबसे पहले हिन्दू नेता एवं उच्च अधिकारी मारे गए। फिर हिन्दुओं की स्त्रियों को उनके परिवार के सामने सामूहिक बलात्कार कर जिंदा जला दिया गया या नग्नावस्था में पेड़ से टांग दिया गया। बालकों को पीट-पीटकर मार डाला। यह मंजर देखकर कश्मीर से तत्काल ही 3.5 लाख हिन्दू पलायन कर जम्मू और दिल्ली पहुंच गए। इस नरसंहार में 6,000 कश्मीरी पंडितों को मारा गया। 7,50,000 पंडितों को पलायन के लिए मजबूर किया गया। 1,500 मंदिर नष्ट कर दिए गए। 600 कश्मीरी पंडितों के गांवों को इस्लामी नाम दिया गया। केंद्र की रिपोर्ट अनुसार कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडितों के अब केवल 808 परिवार रह रहे हैं तथा उनके 59,442 पंजीकृत प्रवासी परिवार घाटी के बाहर रह रहे हैं। कश्मीरी पंडितों के घाटी से पलायन से पहले वहां उनके 430 मंदिर थे। थाईलैंड : श्रीलंका, म्यांमार, कंबोडिया और थाईलैंड वैसे तो बौद्ध राष्ट्र हैं लेकिन यहां के मुस्लिम बहुल क्षेत्र में अब तनाव बढ़ने लगा है। श्रीलंका में कटनकुड़ी नगर मुस्लिम बहुल बन चुका है तो म्यांमार का अराकान प्रांत बांग्लादेश के रोहिंग्या मुस्लिमों से आबाद है। कंबोडिया, थाईलैंड में सबसे ज्यादा तनाव है। संसार का एक बहुत बड़ा भाग बौद्ध मतावलंबी है। जापान को छोड़कर (चीन, वियतनाम आदि देश कम्युनिस्ट है यद्यपि वहां भी बौद्ध मतावलंबी काफी संख्या में हैं) श्रीलंका, म्यांमार और थाईलैंड आदि सभी देशों में ये जिहादी आतंकवादी अब सक्रिय होने लगे हैं। जहां मिली-जुली आबादी हो और मुसलमानों का बहुमत हो वहां अल्पसंख्यकों के प्रति उनका रवैया एक जैसा ही होता है। यानी पहले अपने उग्र रवैये से सामाजिक और मानसिक दबाव बनाना, फिर मार-काट और अंत में अल्पसंख्यकों को खदेड़कर शत-प्रतिशत इस्लामी क्षेत्र बना लेना। थाईलैंड में इसी के चलते वहां 3 दक्षिणी प्रांत- पट्टानी, याला और नरभीवाट- मुस्लिम बहुल (लगभग 80 प्रतिशत) हो चुके हैं। इन 3 प्रांतों में अल्पसंख्यक बौद्धों की हत्याएं और भगवान बुद्ध की मूर्तियों को तोड़ना, सुरक्षा बलों से मुठभेड़, बौद्ध भिक्षुओं पर हमले, थाई सत्ता के प्रतीकों, स्कूलों, थानों, सरकारी संस्थानों पर हमले और तोड़फोड़, निहत्थे दुकानदारों और बाग मजदूरों की हत्या एक आम बात हो गई थी। ये लोग अपनी दुकानें और संपत्ति छोड़कर या कौड़ियों के मोल बेचकर बड़े शहरों की ओर भागने लगे। थाईलैंड के मुसलमानों ने थाई भाषा और जीवन प्रणाली को अंगीकार करने और थाई लोगों से घुल-मिलकर रहने की बजाय पड़ोसी मुस्लिम देश मलेशिया से अपनी निकटता बनाई और मलय भाषा को अपनाकर वे अपने को एक पृथक राष्ट्र के रूप में उजागर करने लगे। थाईलैंड में अल कायदावाद का मूल हथियार बनी है इंडोनेशिया आधारित 'जेमाह जमात इस्लामियाह', जिसके गुट अलग-अलग नामों से प्राय: सभी 'आसियान' देशों में फैले हुए हैं। इनका एक ही उद्देश्य है- गैर-मुस्लिमों का सफाया और गैर-मुस्लिम सत्ता से सशस्त्र संघर्ष। थाईलैंड में 2004 का वर्ष काफी उपद्रवग्रस्त रहा। बात 28 अप्रैल 2004 की है। पट्टानी प्रांत में उस दिन उन्मादभरे मुस्लिम जवानों ने सेना से संघर्ष किया। इस भिड़ंत में 100 उन्मादी तत्व और 10 सैनिक मारे गए और 16 को सैनिकों ने बंदी बना लिया। किंतु अभी संघर्ष चल ही रहा था कि बचे हुए 32 मुस्लिमों ने जाकर एक पुरानी मस्जिद में शरण ले ली और वहां से लड़ाई जारी रखी। जब 6 घंटे तक भी इन लोगों ने हथियार नहीं डाले तो सैनिक मस्जिद में घुस गए और सभी को गोली से उड़ा दिया। जब 2004 में करीब 10 महीनों तक मुस्लिम बहुल दक्षिण प्रांतों में उपद्रव नहीं रुके तो प्रधानमंत्री सहित देश के सभी वर्गों के 930 सदस्यों के शिष्टमंडल ने महारानी सिरीकित से भेंट की और इस पर विचार करने को कहा। तब से एक नीति के तहत संघर्ष जारी है।

नाइजीरिया : अफ्रीका में आतंकवाद तेजी से फैलता जा रहा है। नाइजीरिया अफ्रीका का एक देश है। इतिहासकारों के अनुसार नाइजीरिया में सभ्यता की शुरुआत ईसा पूर्व 9000 में हुई थी। ब्रिटेन ने सन 1900 से 1960 तक नाइजीरिया पर शासन किया और 1 अक्टूबर 1960 को यह देश आजाद हुआ। नाइजीरिया में जब तक मुस्लिम अल्पसंख्यक थे तब तक वहां आतंकवाद की कोई खास समस्या नहीं थी लेकिन जहां-जहां मुस्लिमों की आबादी बढ़ी, वहां-वहां फसाद और दंगे शुरू हो गए। फिलहाल नाइजीरिया में ईसाइयों की जनसंख्या 49.3 प्रतिशत और मुस्लिमों की जनसंख्या 48.8 प्रतिशत है। अन्य धर्म के लोगों की संख्या 1.9 प्रतिशत है। इसी पृष्ठभूमि में कट्टरपंथी मुस्लिम धर्मगुरु मोहम्मद यूसुफ ने 2002 में बोको हराम का गठन किया। उसने एक धार्मिक कॉम्प्लेक्स बनाया जिसमें एक मस्जिद और इस्लामी स्कूल भी बनाया गया। नाइजीरिया के कई गरीब मुस्लिम परिवारों के साथ-साथ पड़ोसी देशों के बच्चों को भी इस स्कूलों में दाखिला देकर उन्हें जिहाद के लिए प्रेरित किया गया। साल 2009 में बोको हराम ने माइडूगूरी स्थित पुलिस स्टेशनों और सरकारी इमारतों पर कई हमले किए। इसका नतीजा ये हुआ कि माइडूगूरी की सड़कों पर गोलीबारी हुई। बोको हराम के सैकड़ों की संख्या में समर्थक मारे गए और हजारों की संख्या में शहर छोड़कर भाग गए। नाइजीरिया के सुरक्षाबलों ने संगठन के मुख्यालय पर कब्जा कर लिया, उसके लड़ाकुओं को पकड़ा और यूसुफ को मार दिया। मोहम्मद यूसुफ के शव को सरकारी टेलीविजन पर दिखाया गया और सुरक्षाबलों ने घोषणा की कि बोको हराम का खात्मा कर दिया गया। फिर अबू बकर शेकाऊ नेता बना। बस, तभी से यहां लड़ाई जारी है। बोको हराम नाइजीरिया का एक आतंकी संगठन है, जो अपनी बर्बरता के लिए जाना जाता है। यह संगठन उस वक्त दुनिया की नजर में आया, जब इसने नाइजीरिया के एक स्कूल से 250 छात्राओं को अगवा कर लिया था। इस संगठन का आधिकारिक नाम जमाते एहली सुन्ना लिदावति वल जिहाद है जिसका अरबी में मतलब हुआ, जो लोग पैगंबर मोहम्मद की शिक्षा और जिहाद को फैलाने के लिए प्रतिबद्ध होते हैं। इस संगठन ने साल 2010 में नववर्ष की पूर्व संध्या पर सैन्य बैरक पर हमला किया। फिर साल 2011 में क्रिसमस के दिन राजधानी आबुजा में चर्च पर हमला किया था जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए थे। नाइजीरिया में मुस्लिम राष्ट्रपति होने के बावजूद बोको हराम उसे एक ऐसा देश मानते हैं जिसे अल्लाह में विश्वास न करने वाले लोग चला रहे हैं। आर्म्ड कनफ्लिक्ट लोकेशन एंड इवेंट डेटा प्रोजेक्ट के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2014 में बोको हराम के हमलों में 6,347 लोग मारे गए थे। ये आंकड़ा साल 2015 में 30 फीसदी बढ़ने की आशंका है। साल की शुरुआत में ही बोको हराम ने 1 ही दिन में 2,000 लोगों की हत्या कर दी थी। ये बोको हराम का अब तक का सबसे बड़ा हमला माना जाता है। इंटरनेशनल ऑर्गेनाइजेशन फॉर माइग्रेशन के अनुसार बोको हराम के आतंक से अब तक 20 लाख से भी ज्यादा लोग अपने घरों को छोड़कर भाग चुके हैं। इस लड़ाई का सबसे बड़ा नुकसान ईसाई परिवारों को उठाना पड़ा है, जो कि बेहद ही गरीब हैं। वे अपना मुल्क छोड़ना चाहते हैं लेकिन कैसे? पूर्वोत्तर नाइजीरिया और चाड झील के इलाके में चल रही लड़ाई में करीब 20 लाख लोग बेघर हो गए हैं। इसके अलावा नाइजीरिया में एक और संगठन सक्रिय है जिसे फुलानी कहा जाता है। फुलानी उग्रवादी उत्तरी और मध्य नाइजीरिया में सक्रिय हैं और अकसर ईसाई किसानों पर हमले करते हैं। पिछले वर्ष उन्होंने 1,229 हत्याएं कीं। अफ्रीका में पैर पसार रहा आतंक : अफ्रीका में आबादी का गणित थोड़ा उलझा हुआ है। जहां-जहां मुस्लिम 35 प्रतिशत से अधिक हैं, वहां-वहां मोर्चा खोल दिया गया है। अफ्रीका में जगह-जगह हमले हो रहे हैं। सोमालिया, नाइजीरिया, माली, ट्यूनीशिया, मिस्र, चाड, कैमरून आदि की सूची बहुत लंबी है। कई जिहादी संगठन सक्रिय हो गए हैं, जैसे मुजाओ अंसार, अलशरीया, साइंड इन ब्लड बटालियन आदि। सोमालिया, केन्या और अन्य पड़ोसी देशों में सक्रिय अल शबाब नामक संगठन ने पिछले वर्ष 1,012 हत्याओं को अंजाम दिया। इसे अल कायदा का सोमालियाई संगठन भी कहा जाता है। इसके बारे में कहा जाता है कि उसके पास कुख्यात आतंकी समूह अल कायदा का शरीर और तालिबान का उग्र तेवर है। एक बार अल शबाब के आतंकियों ने ग्रेनेड और स्वचालित हथियारों से गैरीसा यूनिवर्सिटी के होस्टल में सो रहे छात्रों पर हमला बोल दिया था। हमलावरों की अंधाधुंध गोलीबारी में 147 छात्र मारे गए और 79 से ज्यादा घायल हुए। चश्मदीदों के मुताबिक चरमपंथियों ने ईसाई छात्रों को अलग खड़ा कर गोलियों से भून दिया था। केन्या में 1998 में अमेरिकी दूतावास पर हमले के बाद यह सबसे बड़ा हमला था। अफ्रीका के खूंखार आतंकी संगठन अल शबाब का पूरा नाम हरकत-उल-शबाब अल मुजाहिदीन है। इस चरमपंथी संगठन को साल 2012 में कई देशों ने आतंकी संगठन की श्रेणी में डाल दिया है। अल शबाब का मकसद सोमालिया की फेडरल सरकार को गिराकर इस्लामी सरकार स्थापित करना है। अल शबाब द्वारा आतंक फैलाने का एक मकसद यह भी है कि इससे अफ्रीकी देशों में ईसाई और मुसलमानों के बीच तनाव बढ़े और ईसाई अल्पसंख्यक हो जाएं। कुछ समय पहले ही अफ्रीकी देश माली की राजधानी बोमाको के रोडिसन ब्लू होटल में जिहादी आतंकियों ने 27 लोगों को मौत के घाट उतार दिया। उन्होंने सभी को कुरान की आयतें सुनाने को कहा। जिन्होंने सुना दीं उन्हें छोड़ दिया और जो नहीं सुना पाए उन्हें गोली मार दी।

यूरोप में फैल रहा आतंक : फ्रांस की कार्टून वाली घटना ने यूरोप और इस्लाम के बीच चले आ रहे संघर्ष की कहानी को एक बार फिर से ताजा कर दिया। एक बार फिर यूरोप इस्लामिक आतंकवादियों के निशाने पर है। सद्दाम हुसैन, गद्दाफी, ओसामा बिन लादेन को मारने वाले अमेरिकी और यूरोपीय लोग अब यह सोचने लगे हैं कि यूरोप में रह रहे मुस्लिमों से कैसे निपटा जाए। अभी उनकी सबसे बड़ी चिंता इस्लाम के अनुयायियों की बढ़ती हुई जनसंख्या है। 2012 के आंकड़ों के अनुसार विश्व में ईसाइयों की संख्या 2 अरब 20 करोड़ है यानी विश्व की आबादी का 31.5 प्रतिशत, जबकि इस्लाम को मानने वालों की संख्या 1 अरब 80 करोड़ है यानी 25.2 प्रतिशत। लेकिन इस्लाम के अनुयायियों की वृद्धि-दर विश्व की जनसंख्या में वृद्धि-दर से दुगुनी है और यूरोपीय शोधकर्ताओं के अनुसार यह दिशा बनी रही तो 2050 तक दुनिया में ईसाई मतावलंबियों की तुलना में इस्लाम को मानने वाले 1 प्रतिशत अधिक होंगे। अमेरिका और यूरोप में अभी उनकी संख्या अधिक नहीं है, पर तेजी से बढ़ रही है और 2030 तक दुगनी हो जाएगी। 1900 में वे विश्व की जनसंख्या का 12.50 प्रतिशत थे और आज 25 प्रतिशत से अधिक हैं। अब धीरे-धीरे गैर-मुस्लिम बहुल क्षेत्र यूरोप में भी आतंकवाद फैलने लगा है। फ्रांस, जर्मन, ब्रिटेन और स्पेन के मुस्लिम बहुल क्षेत्र के युवा आतंकवाद की ओर आकर्षित होकर अपने ही देश के खिलाफ जिहाद में शामिल होने लगे हैं। दूसरी ओर यूरोप के जिन देशों ने जिन मुसलमानों को शरण दे रखी थी उन्हीं झुंड में से भी अब आतंकवादी निकलने लगे हैं। इस वर्ष फ्रांस में एक गिरजाघर में हुए आतंकवादी हमले से यूरोप के लाखों लोगों में आतंकवाद के खतरे का डर समा गया है। इसके बाद पेरिस और फिर नीस में हुए हमले से यह पुष्टि हो गई कि फ्रांस के ही मुस्लिमों के सहयोग से इन हमलों को अंजाम दिया गया। फ्रांस, नीस शहर में 14 जुलाई के हमले के बाद से ही हाई अलर्ट पर है, जब एक व्यक्ति ने बास्तील डे के उत्सव के लिए जुटी भीड़ को एक ट्रक से रौंद दिया था। इस घटना में 84 लोगों की मौत हो गई थी और 200 से भी अधिक घायल हो गए थे। ब्रिटेन के विश्लेषक डेविड गार्नर का मानना है कि सऊदी अरब दुनिया में न केवल सबसे बड़ा तेल निर्यातक है बल्कि आतंकवाद और वहाबी विचारधारा का सबसे बड़ा स्रोत भी है। इस विश्लेषक के अनुसार सऊदी अरब ने 1990 की दहाई में शीतयुद्ध की समाप्ति के साथ ही यूरोप में मस्जिदों के निर्माण और उनको आधुनिक करने का कार्य आरंभ किया और यूरोप के अधिकतर देशों जैसे अल्बानी, कोसोवो, बोस्निया, मैसिडोनिया और बुल्गारिया के कुछ हिस्सों में वहाबी विचारधारा को फैलाने के लिए मस्जिदों का निर्माण किया। पिछले साल ब्रिटेन में 299 संदिग्ध आतंकवादियों को हिरासत में लिया गया था, जो इसके भी पिछले वर्ष की इस अवधि की तुलना में 31 फीसदी ज्यादा थे। ब्रिटेन के अधिकारियों ने सितंबर 2001 से आतंकवाद से जुड़े आंकड़े इकट्ठा करना शुरू किया था जिसके बाद से यह सर्वाधिक संख्या है। इससे पहले सर्वाधिक गिरफ्तारियां 2005 में हुई थीं, जब 284 संदिग्धों को गिरफ्तार किया गया था। अधिकारियों ने बताया कि जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया उनमें कई लोग ऐसे थे, जो खुद को या तो ब्रिटिश नागरिक या ब्रिटेन की दोहरी नागरिकता वाला मानते थे। ब्रिटेन में सुरक्षा एजेंसियों को लंदन में एकसाथ 10 आतंकवादी हमले होने की आशंका के मद्देनजर अलर्ट किया गया, क्योंकि उन्हें इस बात का डर है कि सीरिया से लौट रहे आतंकवादी यहां पेरिस जैसा हमला दोहरा सकते हैं। फ्रांस और जर्मनी ही नहीं, ब्रिटेन में भी बाहरी देशों से आकर बसने वालों, जिसमें मुस्लिम आबादी अधिक है, को शक की नजरों से देखा जाता है। यूरोप में सबसे ज्यादा मुसलमान फ्रांस में रहते हैं, जो करीब 50 लाख या आबादी का 7.50 फीसदी हैं। जर्मनी में मुसलमानों की संख्या 40 लाख या 5 फीसदी जबकि ब्रिटेन में 30 लाख या 5 फीसदी है। तीनों जगह मुख्य राजनीतिक दलों को आप्रवासियों की बढ़ती संख्या के मसले पर लोगों के ग़ुस्से और असंतोष का सामना करना पड़ रहा है। हालांकि लंदन के 7/7 हमले ने भी ब्रिटेन को आगाह कर दिया था कि वह चरमपंथी हिंसा का शिकार हो सकता है। इस्लाम विरोधी आंदोलन 'पेगिडा' : यही सभी देखते हुए इस्लाम विरोधी आंदोलन 'पेगिडा' शुरू हुआ। पश्चिम के इस्लामीकरण के खिलाफ यूरोप के राष्ट्रवादी यानी 'पेगिडा' के समर्थक मानते हैं कि इस्लामीकरण से ईसाई धर्म की संस्कृति और परंपराओं को खतरा है। इसमें कोई मतभिन्नता नहीं कि इस्लाम जहां-जहां होगा, वहां आतंक भी होगा। यही कारण है कि अब सीरिया और इराक से भागे लाखों शरणार्थियों को भी निशाना बनाया जा रहा है।

Courtesy: https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10155311586709680&id=671199679

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